Saturday, May 2, 2009

साकिब खान के नाम - - -

बदरियाँ - - -(१०)

साकिब खान साहब! आप एक मुसलमान आदमी लगते है, बह्स के लिए मुझ को आमादा करते हैं, बहस के अंजाम में या तो आप थक कर काफिर हो जाएँगे और या मैं थक कर मुस्लिम. जनाब , आप ने गौर नहीं किया कि मैं काफिर हूँ न मुस्लिम, मैं फक़त मोमिन हूँ , जिसका दीन ए इसलाम नहीं, दीन ईमान है. ईमान की गहराइयों में आप जैसे तसफ्फुफ़ शनास (संत्वादी) को जानना चाहिए. ईमान का वजूद इसलाम से हजारों साल पहले आदमी में इंसानियत आने के साथ साथ आ चुका था. सुकरात, अरस्तु, गौतम,ईसा और इन जैसे हजारों के हाथो में ईमान के चराग थे. सच पूछिए तो ईमान का मुहम्मद ने इस्लामी करण करके मुसलमानों को गुमराह कर दिया है कि "लाइलाहाइललिल्लाह मुहम्मदुररसूलअल्लाह" ईमान है. मशहूर हस्ती तबा ताबेईन हसन बसरी को जानें, जो दिन भर पसीना बहा कर मजदूरी किया करते थे जिन्हों ने कभी मोहम्मादुर रसूल अल्लाह नहीं कहा. उवैस करनी को समझें जो ऊंटों की चरवाही की नौकरी किया करते थे मगर मोहम्मद के लूट के माले गनीमत से कोसों दूर छुपे छुपे फिरते थे. कबीर ने ताने बने को चला कर रोटी को जायज़ किया है, और जिन बे शुमार सूफियाय करम की बात आप कर रहे हैं दर असल वह आज की सेकुलर हस्तियों की रूहानी कड़ी थे जिनके तुफैल में ही मुसलमान आज भारत में थोड़े बहुत सुर्ख रू है। शिर्डी का फकीर उर्फ़ ए आम में 'साईं बाबा' कहा जाने वाला पंज वक्ता नमाजी हुवा करता था मगर कट्टर मुस्लमान न होकर "सब का मालिक एक" का ईमान ए सादिक रखता था, जो नर्म गोशा हिन्दुओं का पूज्य बन गया है और ताअस्सुबी मुसलमानों के लिए यही उसका ईमान ए सादिक, कालिमा ए कुफ्र, बाइसे तरके ता अल्लुक़ बन गया.
आज के सेकुलर आज़ादी से पहले मुसलमानों द्वरा लाहौल पढ़ कर धिक्कारे जाते थे जिनके साए में मुस्लमान आज पनाह चाहते हैं। बरेली के आला हज़रात ने उन तमाम मुसलमानों को काफिर का फत्त्वा दे दिया था जो गांधी जी की मय्यत में शरीक हुए थे, जैसे सकीब साहब ने मुझे काफिर लिख दिया. आप क्या है आप के पैगम्बर मुहम्मद ज़रा ज़रा सी बात पर नव मुस्लिमों को काफ़िर कह दिया करते थे. काफिर कहना मुसलमानों में एक फैशन बना हुआ है। मैं अबोध बंधुओं को बतला दूँ कि काफिर एक किस्म की इस्लामी गाली है, किसी को काफिर कहना बहुत ही अपमान जनक बात है. नाजायज़ संतान की तरह. दूसरा मुसलमानों का मशगला है गर्दन मरना. मेरी इन तहरीरों की सजा इसलाम में मेरा सर कलम कर देना है। कुरान यही सब मुसलमानों को सिखलाता है। गाली देना, सर कलम कर देना, कोई इंसानियत के लिए शुभ पहलू इन के पास है ही नहीं। यह गाली बकते, गर्दनें मारते हुए एक दिन मुल्कों की पहाडियों पर छिपते छिपाते अपनी मौत मर जाएँगे..

'मोमिन'

2 comments:

  1. मुझे लगता है तुम मोमिन तो हो ही नहीं सकते, हाँ कुंठित ज़रूर होगे... अपनी दूसरी कुंठाएं यहाँ इस तरह से निकलना गलत बात है. अपनी पहचान छिपाने वाले, अगर तुम्हारी बात में वाकई सच्चाई होती तो तुम्हारा दिल तुम्हें सामने आने से नहीं रोकता. तुम्हें यह अच्छी तरह से पता है कि तुम झूठ लिखोगे, खुराफात लिखोगे. और तुम्हें तो हर चीज़ में बुराई नज़र आ रही है, कम से कम कहीं तो ठहरो. और हाँ, एक चैलेन्ज मेरा भी ले लो, तुम कभी सामने नहीं आ पाओगे, ना ही बुराई करने से बाज़ आओगे. एक बात और है तुम्हे अपने सगे रिश्तेदारों से भी दुश्मनी होगी और मोहल्ले में तुम रुतबा एक भिखारी टाइप का होगा क्यूंकि शर्तिया (दोबारा चैलेन्ज) तुम कुछ कमाते नहीं होगे. एक और चैलेन्ज तुम एक हिन्दू हो सकते हो जो छद्म नाम से थोडा बहुत हिंदी की चीज़ें पढ़ कर उसमें अपने तर्कों (कुतर्कों) से सिद्ध करने में लगे हो, क्यूंकि जब तुम किसी से कुतर्क करते होगे तो तुम्हें अजीब सा सुख मिलता होगा. यह एक बीमारी है. कुतर्क से कोई भी अपनी बात सिद्ध कर सकता है.

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  2. भाई यह बताओ अधर्मी एवं नास्तिक किनको कहा जाता है?
    काफ़िर शब्द बारे में नायक साहब का जवाब ये है:
    शब्द ‘‘काफ़िर’’ वास्तव में अरबी शब्द ‘‘कुफ्ऱ’’ से बना है। इसका अर्थ है ‘‘छिपाना, नकारना या रद्द करना’’। इस्लामी शब्दावली में ‘‘काफ़िर’’ से आश्य ऐसे व्यक्ति से है जो इस्लाम की सत्यता को छिपाए (अर्थात लोगों को न बताए) या फिर इस्लाम की सच्चाई से इंकार करे। ऐसा कोई व्यक्ति जो इस्लाम को नकारता हो उसे उर्दू में ग़ैर मुस्लिम और अंग्रेज़ी में Non-Muslim कहते हैं।
    यदि कोई ग़ैर-मुस्लिम स्वयं को ग़ैर मुस्लिम या काफ़िर कहलाना पसन्द नहीं करता जो वास्तव में एक ही बात है तो उसके अपमान के आभास का कारण इस्लाम के विषय में ग़लतफ़हमी या अज्ञानता है। उसे इस्लामी शब्दावली को समझने के लिए सही साधनों तक पहुँचना चाहिए। उसके पश्चात न केवल अपमान का आभास समाप्त हो जाएगा बल्कि वह इस्लाम के दृष्टिकोण को भी सही तौर पर समझ जाएगा।

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