Wednesday, April 29, 2009

खुदा

बेदारियां -(८)

अलबेदर



खुदा बहुत ही व्यक्ति गत मुआमला है. इसे मानने और न मानने या अपने तौर पर मानने की आज़ादी हर इंसान को होना चाहिए. वैसे खुदा को मानने का फ़ायदा जेहनी शांति से अधिक और कुछ भी नहीं, वह भी ज़्यादः हिस्सा आत्म घात है और थोडा सा मनोवैज्ञनिक उपचार. मज़हब और धर्मों ने खुदा को लेकर मानव अधिकार में सेंध लगा कर इस को समूह के हवाले कर दिया है. इस तरह मानव जाति को खुदा का कैदी बना कर रख दिया. खास कर इस्लामी मुमालिक में अंतर राष्टीय "खुदा" क़ुरआनी "अल्लाह" के रूप में बदल गया है. अब यहाँ अवाम इज्तिमाई (सामूहिक) इस्लामी अल्लाह का कैदी बन गई है, इस तरह वहां पर खुदा को मानने की व्यक्ति गत आज़ादी ख़त्म हो गई.
खुदा क्या है? हर कोई इसे अपनी जेहनी सतह पर कभी न कभी ज़रूर लाता है. यह लफ्ज़ फारसी का है जो की शब्द खुद से बना है. पौराणिक ईरानी विचार धारा, वह जो खुद बन जाए, जिसे किसी ने नहीं बनाया, जो खुद बखुद बन गया हो वह खुदा है। बाकी तमाम चीजों का बनाने वाला खुदा है. खुदा पूरे ब्रम्ह्मांड एवं समस्त जीव जंतु का मालिक है. यही ख़याल यहूदियों का है मगर थोड़े अंतर के साथ, वोह यह कि मालिक तो पूरे ब्रम्ह्मांड एवं समस्त जीव जंतु का है मगर मेहरबान है सिर्फ क़ौम यहूद पर. इसी तरह इस्लामी अल्लाह है तो रब्बुल आलमीन मगर जन्नत देगा सिर्फ मुसलमानों को, बाकियों को नरक में झोंकेगा. ईसाइयत भी इस तंग नज़री से मुक्त नहीं. बहार हाल इन सब के खुदाओं की बुनियाद ईरानी फिलासफ़ी पर रखी हुई है कि खुदा खुद से है, इसका बनाने वाला कोई नहीं. सब का बनाने वाला वह है वोह एक है, इस बात पर इन सभों को इत्तेफाक है. हिदू आस्था इस से कुछ हट के है, वोह अकेला नहीं बल्कि विविध अधिकारों के अंतरगत वोह पूरी टीम है मगर खुद साख्ता तीन हैं १-ब्रम्ह्मा २-विष्णु ३-महेश। पहले का काम है ब्रम्ह्मांड की उत्पत्ति, दूसरे का काम है इसे चलाना और तीसरे का काम है इस सृष्टि को मिटाना। यह प्रोग्राम लम्बी काल चक्र में चला करता है. तमाम दीगर कौमों से प्रभावित होकर अब बहुत से हिन्दू भी एकेश्वर वाद को मानने लगे हैं.
फ़ारसी का ही एक लफ्ज़ है बन्दा जिसके माने इन्सान के ज़रूर होते हैं मगर पाबन्द, दास सामान मानव के अर्थ में सहीह अर्थ होगा. जिसके ऊपर बंदिश हो, जिसके लिए बंदिश शर्ते अव्वल है वैसे ही जैसे खुदा में खुद सरी है.
यह खुदा और बन्दे की खुद सरी और पाबन्दी का ईरानी फ़लसफा इन्सान को सदियों से गुमराह किए हुए है. यह फ़लसफा इतना कामयाब रहा है कि एक आम आदमी इस से हट कर कुछ सोचना ही नहीं चाहता, खास कर पूर्वी चिंतन, मगर असलियत इस से कुछ हट के है, न खुदा खुद से है, न बन्दा बंदिश में है. सच तो यह है की इस फलसफे की व्योसायिक समाधियाँ प्रकृति
की भूमि पर अमर बेल की तरह फैली हुई हैं, जिन पर धर्म ओ मज़ाहिब की पुरोहिती हो रही है. जिस रोज़ यह छलावा इंसानी दिमागों को मुक्त कर देगा उस रोज़ खुदा की खुदी बाकी रह जाएगी न बंदे की पाबन्दी. जो कुछ बचेगा वह प्रकृति होगी जिसका कोई खुदा होगा न कोई बन्दा. अब हम को तो यह ईरानी फ़लसफा उल्टा नज़र आने लगा है. कई मोर्चे पर खुदा बे बस नज़र आने लगा है और बन्दा बा स्वाधिकार होता चला जा रहा है. मानव अपने प्रयत्नों से चाँद तारों तक पहुँच रहा है जो खुदा के लिए एक चैलेन्ज है मगर प्रकृति इस काम में उसकी मदद गार है. हर खुदाई कहर पर इन्सान धीरे धीरे काबू पा रहा है, दुन्या की कई बीमारियाँ इंसान ने जड़ से मिटा दी हैं, इस तरह कहीं कहीं खुदाई पाबन्द नज़र आने लगी है और बनदई स्वछंद . खुदा और बन्दों का मुकाबला तो मज़हबी शोब्देबाजी है. इन्सान खुदा से लड़ने जैसी मूर्खता नहीं करता बल्कि कुदरती आपदाओं से खुद को बचाता है.
जंगल में हैवानी राज है जो की खुदा की कल्पना से ना वाकिफ है. हैवानों की व्योवस्था हजारों साल से संतुलित अवस्था में है ,जब कि इंसानी समाज खुदा को लेकर हजारों बार इस ज़मीन को तहस नहस कर चुका है. हैवान पैदैशी हैवान होता है जो मरने तक हैवान ही रहता है. इन्सान भी पैदाइशी हैवान है मगर धीरे धीरे बड़ा होकर इन्सान बन्ने लगता है, इस से पहले कि वह मुकम्मल इन्सान बन पाए धर्म और मज़हब इसे अधूरा कर देते है, वोह भी पूरा इन्सान बनाने के नाम पर. गांघी जी एक महान इन्सान थे मगर धर्म का झूट उनकी घुट्टी में बसा था. पीड़ित अछूतों को हरी जन का नाम तो दे सके मगर ब्रम्ह्म जन ना बना सके नतीजतन वह आज ६० साल बाद भी बरहमन के पैरों में पड़े हैं. मदर टरेसा ऊँची हस्ती थीं मगर ईसाइयत हानि कारक पहलू को सींचती हुई.
खुदा, ईश्वर, गोड के समान एक शब्द अरब दुन्या का (इलोही, इलाही, या)अल्लाह है, इस में अल्लाह का मुहम्मद ने इस्लामी करण कर लिया जिस से लफ्ज़ अल्लाह खुदा और ईश्वर या गाड के तत्भव में नहीं रहा. इसका किरदार एक भयानक और डरावनी छवि जैसा हो गया है। शैतान से भी ज्यादह, खबीस,पिशाच या राक्षस जैसी इसकी तस्वीर उभर कर आती है. इतना सख्त कि वजू करने में ज़रा सी एडी की न भीगे तो वहीँ से जहन्नम की आग दौड़ने की आगाही देता है। काफिरों को जहन्नम में इस कद्र जलाता है कि उनकी खालें गल कर बह जाती हैं, फिर उन खालों की जगह दूसरी नई खाल मढ़ कर जलाना शुरू करता है. यह सिलसिला हमेशा हमेशा चलता ही रहता है. इस को इस्लामी ओलिमा अल्लाह की हिकमत कहते हैं और इसी बात को लेकर कुरआन का नाम "कुरान ए हकीम" रक्खा. वह दोज़ख से पूछता रहता है कि तेरा पेट भर कि नहीं? दोज़ख कहती है अभी नहीं. फिर वह इंसानों और जिनों से उसका पेट भरना शुरू कर देता है. दोज़ख के अजाब के अजायब कुरान में देखिए.
दर अस्ल मोहम्मद ने इस्लामी अल्लाह को अपनी फितरत के हिसाब से गढा है और उसका पैकर (ढांचा) बना कर खुद उसमे दाखिल हो गए हैं। लाखैरे, बेहिसे और बेकारों की अक्सरियत पाकर मोहम्मद ने अपनी कामयाबी पर अकेले में दिल खोल कर क़हक़हा लगाया होगा कि मै परवर दिगर बन गया, यह मेरा यकीन है। दुन्या के तमाम ग्रंथों में कलंकित ग्रन्थ कुरआन है और दुन्या की जाहिल तरीन क़ौम इस मुहम्मदी अल्लाह के कायल है. हुवा करें, हमें क्या ? अगर हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. मगर ठहरिए, हमें फर्क पड़ता है, जिस तरह मुहम्मदी अल्लाह दुश्मने इन्सान है, वैसे ही इस के मानने वाले दुश्मने इंसानियत हैं.
इंतज़ार करें "हर्फ़ ए गलत" का सिलसिला जल्द ही शुरू होने वाला है जो की कुरआन की असलियत को मंज़रे आम पर लाएगा और सोई हुई क़ौम को आवाज़ देगा कि इन खबीस आलिमान ए दीन को पहचानो, जो सदाक़त की पर्दा पोशी करके तुमको सदियों से गुमराह किए हुए हैं. मुसलमानों को रहनुमाई की ज़रूरत है, हर bआज़मीर बाज़मीर इन्सान दोस्त से निवेदन है की हमारा साथ दे।

'मोमिन'

Tuesday, April 28, 2009

शरीयत

bedariyan

आन्तरिक खतरा

कभी नमाज़ न पढने वाले, शराब के शौकीन, यहाँ तक की सुवर माँस से भी परहेज़ न करने वाले, बकौल श्री अडवानी सेकुलर और बएलन पाकिस्तानी अवाम काएदे मिल्लत मोहम्मद अली जिन्ना के सपनो का पाकिस्तान तालिबानों के हाथों में तालिबानिस्तान बनने जा रहा है. ये इस्लामी इतिहास का एक भयावह द्वार मानव समाज के लिए खुलेगा, जिसकी कल्पना भी अभी करना ठीक नहीं लगता। पाकिस्तान में सदियों पुराना वहशियाना क़ानून शरीयत लागू होगा जो उस वक़्त भी जाहराना और जाबिराना था जब अनपढ़ मुहम्मद ने इस को तथा-कथित ईश वाणी कुरआन का फरमान बता कर लागू किया था, आज तो मानव मूल्य बहुत संवेदन शील हो चुके है. पाकिस्तानी अवाम फिर पीछे की तरफ माज़ी बईद में कूच करेंगे, वैसे भी वहां ज़ेह्नी पस्मान्दगी तो थी ही अब उन पर और भी कज़ा दूनी हो जाएगी. हर गाँव, हर क़स्बे, हर ज़िले और हर शहर में लम्बी लम्बी दाढ़ी वाले छोटे छोटे मोहम्मद रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तलवार से लेकर तोप तक लिए बैठे मोहम्मदी सियासत और रसूली जेहालत का फायदा उठा रहे होंगे.
इंसानी हमदर्दी के आलावा पाकिस्तान में मेरी कोई दिल चस्पी नहीं है. "शेख अपनी देख" हम कौन से राम राज में रह रहे हैं? पाकिस्तान जम्हूरियत से इस्लामी मुल्क बन्ने जा रहा है वोह भी तालिबानी, जिसका मतलब है हमारे पडोसी की दुरदशा. तालिबानी आत्माओं का मकसदे हयात है, कुरआन की उन ज़हरीली आयातों को जीना जो जेहाद से परिपूर्ण हैं, उनके लिए मानव जीवन की कोई कीमत नहीं, चाहे वह कोई भी हों, बूढे, बच्चे, औरत, मर्द, मुस्लिम, काफ़िर या कोई जीव, उनको अपना स्वार्थ प्यारा है कि शहीद होने के बाद सीधे हूरों और शराब की नहरों से भरी जन्नत में जाना. इस अटल विश्वास के आगे मानव संवेदना का क्या मूल्य है? सवाल उठता है कि पाकिस्तान में आई हुई इस इस्लामी पस्ती के लिए हम कहाँ तक ज़िम्मेदार हैं? हमारे भविष्य में क्या लिखा है ? जी हाँ, हम सो रहे हैं जम्हूरी चादर ओढ़ के और अपने घर के बच्चों को जम्हूरी छूट दिए हुए हैं कि बेटे जाओ तुम भी तालिबानी कुरआन की आयतें पढो, बड़े होकर जेहादी बनना.
कोई मेरे सवाल का जवाब देगा कि तालिबानी कुरआन और हमारे यहाँ मदरसों में पढाई जाने वाली कुरआन में क्या फ़र्क है? यह इब्नुल वक़्त टके पर ईमान बेचने वाले सब के सब इस्लामी आलिम हिन्दुस्तानी अवाम के सामने जेहाद के नए नए माने गढ़ रहे हैं, जेहाद को जद ओ जेहद के शब्द जाल में लपेटे हैं. कुरआन एक बार नहीं बार बार कहता है, अल्लाह के नाम पर क़त्ताल करो. बच गए तो माल ओ मता पाओगे, शहीद हो गए तो हमेशा के लिए जन्नत की ज़िन्दगी होगी जहाँ शराब, जवान हूरें, गिल्मान और फलों से लदी हुई डालियाँ होंगी, हीरे जवाहरात के महल होंगे. दर अस्ल जेहाद का मकसद है दर पर्दा इसलाम का विस्तार, (पहले था अरब को मज़बूत करना और अरबियों खास कर कुरैश की आर्थिक मदद ) इसके केंद्र को मज़बूत करना, इसके मानने वालों को जेहालत के अँधेरे में रखना. अब ऐसा नज़रिया रखने वाली इतनी बड़ी आबादी इस्लामी असर में रह कर हमारे साथ साथ रहती है तो यह एक चिंता का विषय ज़रूर है.
क़ुरआन एक खतरनाक अंध विश्वास है तो इस पर अंकुश लगे, इस बात से विरोधी तालियाँ न बजाएँ, इस पर अंकुश लगाने से पहले उनको अपने गरेबान में मुँह डाल कर झाँकना पड़ेगा। भारत में बहु संख्यक को पहले समझदार होना पड़ेगा. भारत के अल्प संख्यक को अगर अंध विश्ववास की पुडिया पिला रहा है तो भारत के बहु संख्यक को हिंदुत्व महा अंध विश्वास की गोली खिला रहा. दोनों एक दुसरे के पूरक और सहायक हैं. धार्मिक और मज़हबी अंध विश्वास ही हमारे देश का दुरभाग्य है.

'मोमिन'

Monday, April 27, 2009

क़ुरआनी हक़ीक़त

अलबेदार

बदरियाँ -(६)

दुन्या के तमाम मुसलमानों के साथ बड़ा अलमिया(विडंबना) ये है कि उन का धार्मिक ग्रन्थ यानी कुरआन, उनकी अपनी भाषा में नहीं है, सिवाए अरब के जो हमेशा से कुरआन का आर्थिक लाभ भर ले रहे हैं. बाकी गैर अरब इसलामी दुन्या इस स्वयम सज्जित ग्रन्थ को सर पे उठाए हुए महत्त्व पूर्ण किए हुए है. उपमहाद्वीप का एक मुस्लिम वर्ग तो उन अरबों को इस्लामी दृष्टि कोण से मुसलमान ही नहीं मानता, उन्हें वहाबी कहता है. मुस्लमान विद्यार्थियों को अरबी के नाम पर मदरसों में कुरआन पढाया जाता है, जो की कुरआन के पढने तक महदूद रहता है, न तो विद्यार्थी इसकी भाषा को समझ सकता है, न लिख सकता है और न ही बोल सकता है. आश्चर्य जनक है कि लाखों इसके कंठस्त हफिज़े कुरआन हर रोज़ कुरआन को दोहराते हैं और इस में इन की उम्रें बीत जाती हैं मगर वह नहीं जानते कि वह रोज़ कुरआन में क्या पढ़ते हैं? वोह ये तो जानते हैं कि ये अल्लाह का कलाम है यानी ईश वाणी है मगर ये नहीं जानते कि अल्लाह रोज़ उन से क्या कहता है? वह केवल इतना जानते हैं कि कुरआन ईश वाणी है और इस के पाठ करने में पुन्य है. अल्लाह ने क्या कहा, ये इसका चतुर गुरु जाने. कुरआन मुकम्मल निजाम हयात (जीवन विधान) है, मुल्ला के मुँह से सुनी ये बात आम मुस्लमान के मुँह पर रखी रहती है. मैं ने कईयों को दावत दी कि कभी कुरआन ला कर मुझे भी दिखलाएं कि कहाँ छिपी हुई हैं निज़ाम हयात? तो वोह बगलें झाँकने लगे, कई दोस्त कुरआन लेके बैठे भी मगर क्या खाक पाते कुरआन में कुछ ऐसा है ही नहीं. अल्लाह की बातें तो इन्हें समझ में न आईं मगर तर्जुमान की पच्चर से कसी गई चूलें इन्हें मना लेतीं अन चाही बातों के लिए. चूँ कि कुरआन को लोग सर्वांग आस्था बन कर पढ़ते है और इस पर ज़बान खोलने का साहस नहीं करते, वजेह ये कि दोज़ख की धमकी साथ साथ चलती रहती है और मानने वालों को जन्नत की लालच भी, तो कौन रिज्क ले. सच पूछिए तो क़ुरआन को किसी सिंफे सुखन (विधा) का नाम दिया ही नहीं जा सकता. ये एक फूहड़ तुकांत वाली शायरी है. कलाम में रवानी (प्रवाह)और फ़साहत (सुभाष्यता) लाने के लिए अर्थ का अनर्थ हो गया है. बातें आधी अधूरी रह गई हैं जो कि पढने वालों को बुरी तरह खटकती हैं और जिसे अनुवादक और ब्याख्या कार अपनी बैसाखी लगाए रहते हैं. कहीं कहीं क़ुरआन कि बातें ऐसी लगती हैं जैसे बातें सिर्फ बात करने के लिए की जा रही हो, जैसे कि किसी पागल कि बड. मुझे यकीन है कोई भी औसत दर्जे का ज़ेहन रखने वाला एक मुसलमान क़ुरआन का बुनयादी अनुवाद पढे तो ख़त्म होने से पहले ही बेज़ारी का शिकार हो जाएगा. कहा जाता है क़ुरआन अल्लाह का कलाम है यानी अल्लाह के मुँह से निकली हुई बात मगर क़ुरआन में अल्लाह कभी अपने मुँह से बोलता है तो कभी मुहम्मद उसके मुँह से बोलने लगते हैं और कभी एक अदना सा बन्दा बन कर अल्लाह खुद अल्लाह के आगे गिडगिडाने लगता है. कलाम के ये तीन अंदाज़ काफ़ी हैं कि क़ुरआन किसी आसमानी ताक़त का कलाम नहीं है. आलिमान क़ुरआन बतलाते हैं कि यह अल्लाह का अंदाजे बयान है जो कि उनकी बे शर्मी ही कही जा सकती है. इनकी बात मान लेना आज समाजी मजबूरी नहीं रह गई. बल्कि समाज के तईं ये गैर ज़िम्मेदाराना बात है.
"ला इलाहा इल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह" अर्थात "अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और मोहम्मद उसके दूत हैं।"किसी गैर मुस्लिम को इसलाम कुबूल करने के लिए नहा धो कर प्रस्तुत कलिमा पढ़ लेना ही काफी होता है। इसके अंतर गत एक जन साधारण को इसलाम का गुलाम बना लिया जाता है. इस के तहेत नव मुस्लिम को मुल्ला की हर सही और गलत बात मानने के बाध्य हो जाना पड़ता है जिस को मुहम्मद ने क़ुरआन में अल्लाह के मुँह से कहा है. उस अल्लाह का अस्तित्व तो कहीं है ही नहीं जिस की कल्पना मुहम्मद ने की है. दर असल परदे के पीछे मुहम्मद खुद वह अल्लाह हैं जिसको कि उन्हों ने बन्दों के लिए गढा है. किताब के ख़त्म होते होते यह बात खुद बखुद करी (पाठक) के समझ में आ जाएगी. मुहम्मद का अल्लाह जो कि मुसलमानों के सिवा बाकी सारी कौमों के लिए आग की भट्टियाँ दहकता है, ठीक ऐसा ही अल्लाह यहूदियों का इलोही (जहूवा) भी है बल्कि इस भी सख्त. मुहम्मद ने यहूदियों के नबी मूसा का पूरा पूरा अनुसरण किया है. मूसा ज़ालिम तरीन रहनुमा था. मुहम्मद और मूसा में अंतर सिर्फ इतना है कि मूसा मुहम्मद की तरह निरक्षर नहीं था, तौरेत का ज़्यादा हिस्सा की रची हुई है जिस में एक सलीका है। क़ुरआन में बे सिर पैर की बकवास है, इसी लिए इसकी तिलावत (पाठ) करना अव्वालियत में क़रार दे दिया गया है, अवाम को समझना है तो किसी मौलाना के माध्यम से ही समझे. जो की पक्के चाल बाज़ होते हैं.
मोमिन

Sunday, April 26, 2009

एक ही हाल

बेदारियां -(५)

अलबेदार


हम बहैसियत मुसलमान इस वक्त अपने विरोधियों के निशाने पर हैं, ख्वाह वह भू भाग का कोई भी टुकडा क्यों न हो, मुस्लिम शाशन में हो, या गैर मुस्लिम प्रभुत्व में हो, छोटा सा गाँव हो, कस्बा हो, छोटा या बड़ा शहर हो, हर जगह मुसलमान अपने आप को असुरक्षित मानता है, खास कर वह मुसलमान जो वक्त के अनुसार बेहतर और जागरुक समाजी ज़िन्दगी जीने का हौसला रखता है. उस के लिए दूर दूर तक आंतरिक और वाह्य दोनों तौर पर रोड़े बिखरे हुए हैं. वाह्य रूप में देखें तो दुन्या इन मुसलमानों के लिए कोई नर्म गोशा इस लिए नहीं रखती कि इन का अतीत उनके प्रति इन्तेहाई दागदार है, और आंतरिक सूरते हाल ऐसी है कि ख़ुद इनका ही समाजी वातावरण इन्हें सदियों पीछे ले जाना चाहता है. हर संवेदन शील मुसलमान अपने ऊपर मंडराते खतरे को अच्छी तरह महसूस कर रहा है. वह अपने अन्दर छिपी हुई इस की वज़ह को भी अच्छी तरह जानता बूझता है. बहुत से सवाल वह ख़ुद से करता है, अपने को लाजवाब पाता है. ख़ुद से नज़र नहीं मिला पाता, जब कि वह जानता है हल उसके सामने अपनी उंगली थमाने को तय्यार खड़ा है क्यूंकि उसके समाज के बंधन उसके पैर में बेडियाँ डाले हुए हैं. वह शुतुर मुर्ग कि तरह सर छिपाने के हल को क्यूं अपनाए हूए है? वह अपनी अस्तित्व को किस के हवाले किए हुए है? इसी कशमकश में वह ख़त्म हो जाता है, और अपनी नस्लों को खौफनाक भविष्य में ढकेल जाता है.
हमें चाहिए हम आँखें खोलें, सच्चाइयों का सामना करते हुए उनको तस्लीम कर लें। याद रखें सच्चाई को तस्लीम करना ही सब से बड़ी अन्दर की बहादुरी है. दीन के नाम पर रूढियों(क़दामातों) पर डटे रहना जहालत है. कल की अलौकिक (माफौकुल-फितरत) बातें और मिथ्य (दरोग बाफियाँ) आज के साइंस्तिफिक हल २+२=४ कि तरह सच नहीं हैं. आधुनिक और जदीद तरीन सत्य और सदाक़तें अपने साथ नई मूल्य लाई हैं. इन में शहादतें और पाकीज़गी है. वह अतीत के मुजरिमों का बदला इनकी नस्लों से नहीं लेतें. वह क़ुरआनी आयातों की तरह काफिर की औरतों और बच्चो को "मिन जुमला काफिर" करार नहीं गरदान्तीं (गिनते). वह तो काफिर और मोमिन का अंतर भी नहीं करतीं. इन में प्रति-शोध ( इन्तेक़ाम) का कोई खुदाई हुक्म भी नहीं है, न इन का कोई मुन्तक़िम(बदला लेने वाला) खुदा है. हमें इन जदीद सदाकतों और पवित्र मूल्यों को तस्लीम कर लेने की ज़रूरत है. हमें तौबा इन के एहसासात (अनुभूतियों)के सामने आकर करना चाहिए और हम तौबा जाने कहाँ कहाँ वहमों और गुमानों के सामने करते फिर रहे हैं, यह नई सदाकतें, यह पाक क़द्रें किसी पैगम्बर की ईजाद नहीं, किसी समूह की नहीं, किसी कबीले की नहीं, किसी भू-भाग की नहीं, हजारों सालों से इंसानियत के पौदों के फूल की खुशबू से यह वजूद में आई है. बिना किसी शंका, या शको शुबहा इन को "हर्फे-आखीर" और "आखिरी निज़ाम" कहा जा सकता है. ये रोज़ बरोज़ और ख़ुद बखुद सजती और संवारती चली जाएंगी. इन का कोई अल्लाह नहीं होगा, कोई पैगम्बर नहीं होगा, कोई जिब्रील नहीं होगा, न कोई शैतान ये मज़हबे-इंसानियत दुन्या का आखरी मज़हब होगा, आखरी निजाम होगा. अगर सब से पहले मुसलमान इसे कुबूल करें तो इन के लिए सब से बेहतर रास्ता होगा. आज दो राहे पर खड़ी क़ौम के लिए सही हल. दुन्या की कौमों में सफ़े-अव्वल में आने का एक सुनहरा मौक़ा और short cut रास्ता. इसके बाद बाकी भारत मानवता के अनुसरण में होगा.


'मोमिन'

Saturday, April 25, 2009

दोबारा निवेदन है - - -

बेदारियाँ -( १)

शुरू करता हूँ बइस्म् ए सिद्क़ और ईमान के साथ- - -


मुसलामानों! जागो तुम आज कुछ ज़्यादह ही अपने दुश्मनों से घिरे हुए हो, वैसे तुम तो हमेशा से ही खतरों से घिरे रहते हो। जब तुम पर कोई खतरा लाहक़ होता है तो उल्टे तुम्हारे मज़हबी रहनुमा तुमको ही दोष देते हैं कि तुम दीन से हटते जा रहे हो और तुम को तुम्हारा माज़ी याद दिलाते हैं जब तुम हुक्मरान हुवा करते थे. हालाँकि तुम मुस्लिम अवाम हमेशा दीन दार रहे हो और आज सब से बेहतर मुस्लमान हो. फिर भी वह तुम को पहला हल बतलाते है कि नहा धो कर सब से पहले तुम तौबा करके नए सिरे से फिर से मुस्लमान बन जाओ और हो जाओ पंज वक्ता नमाजों के पाबन्द, उनका कहना मानो। दर अस्ल यही मुसलमानों के साथ कौमी हादसा है. मुस्लमान बेदार होने की दर पे होता है कि ये दीनदार उसे नींद की गोलियां एक बार फिर से देकर सुला देते हैं. क़ौम को सही मानों में बेदार होना है, इस के लिए क़ौम को बहुत बडी जेसारत करनी होगी. इसलाम को नए सिरे से समझना होगा, कुरआन की गहराइयों में जाना होगा जहाँ खौफ नाक नफ़ी के पहलू पोशीदा हैं, जिसे हर आलिम जनता है, नहीं जानती तो मुस्लिम अवाम। जिसे हर हिदू विद्वान् (अमानवीय मूल्यों का कपटी ज्ञान धारक) जनता है मगर चाहता है कि मुसलमान इस अंध विश्वास और आपसी कलह में हमेशा मुब्तिला रहे ताकि ये "पिछड़ा वर्ग विशेष" कहलाए. ओलिमा अगर क़ुरआनी हकीक़त मुसलमानों पर ज़ाहिर कर दें तो वोह गोया खुद कशी कर लें. "अलबेदार" ने बीडा उठाया है कि ईमानदारी के साथ मुसलमानों को जगाएगा और थोडी सी तब्दीली की राय देगा कि तुम " मुस्लिम से मोमिन हो जाओ" इसलाम को तस्लीम किया है जिसके पाबन्द हो. इस पाबन्दी को ख़त्म करदो और ईमान को कुबूल कर लो जो कि इन्सान का अस्ल और इन्सान का दीन है, जैसे धर्म कांटे का असली और फितरी दीन है उसकी सही तौल, फूल का असली और फितरी दीन है महक, और इन्सान का असली और फितरी दीन है इंसानियत। बस ये ज़रा सी तब्दीली धीरे से दिल की गहराई में जाकर तस्लीम कर लो फिर देखो कि तुम क्या से किया हो गए. तुम्हें अपनी तहज़ीब ओ तमद्दुन, अपना कल्चर अपनी ज़बान, अपना लिबास, अपना रख रखाव और तौर तरीका कुछ भी नहीं बदलना है, बदलना है तो सिर्फ सोच और वह भी बहुत शिद्दत के साथ कि बड़े ही नाज़ुक दौर से मुस्लमान कही जाने वाली क़ौम तबाही के दहाने पर है. अपने बच्चों को जदीद तालीम दो, दीनी तालीम और तरबीयत से दूर रक्खें. मौलानाओं, आलिमों, मोलवियों के साए से बचाएँ, क्यूंकि यही हमेशा से मुसलमानों के पस्मान्दगी के बाईस रहे है।

'मोमिन'

Thursday, April 23, 2009

अलबेदार

अलबेदार -(३)
आगाही
मुसलमानों! जागो,
क्या तुम को मालूम है कि तुम पामाल हो रहे हो ?
कभी सोचा है कि इसकी वजह क्या हो सकती है ?
इस की वजह है तुम्हें घुट्टी मे पिलाया गया दीन ए इसलाम और तुम्हारे वजूद पर छाए हुए यह शैतानी आलिमाने दीने ए इसलाम. क़ुरआन तुम्हारा पैदाइशी दुश्मन है जिस को यह आलिमाने दीन तुम्हें उल्टा समझाते हैं, जो कहता है "अल्लाह की राह में क़त्ताल करो." दुन्या के लिए यह इसका बद तरीन पैगाम है, इसके रद्दे अमल में सारी मुहज्ज़ब दुन्या मिल के तुमको क़त्ल करके ज़मीन को पाक कर देगी. अभी वक़्त है तर्क ए इसलाम करके ईमान के दामन को थाम लो, मुस्लिम से मोमिन बन जाओ, बहुत आसान है ये काम, बस तुम्हारे पक्के इरादे की ज़रुरत है. मोमिन पैदा हो चुका है, वह तुम्हारी रहनुमाई करता है. वह पयंबरी का दावा करता है न रहबरी का, वोह तो तुम में से ही एक अदना सा जगा हुवा इन्सान है जो भोले भाले मुसलमानों को जगाना चाहता है कि तुम लोग अपने बद तरीन दुश्मन, अपने बहरूपिए ओलिमा के चंगुल में फंसे हुए हो, आज ही नहीं, सदियों से . क़ुरआन में कुछ भी नहीं है, कुरआन आलम इंसानियत पर एक गाली है, इसे अपनी आँखों से देखो, अपनी समझ से समझो, शर्म से सर झुक जाएगा. इस्लामी आलिम सब कुछ तुम को उल्टा बतलाते हैं."हर्फे ग़लत" को पढो पहली किताब है जो कुरआन का ठीक ठीक तर्जुमानी करती है, कोई मुल्ला लाहौल पढने के सिवा इसके किसी बात का फितरी जवाब नहीं दे सकता. मुस्लिम से बा ज़मीर और ईमान दार मोमिन बनो.

अलबेदार

बेदारियां -(४)

मुसलमानों को अँधेरे में रखने वाले ओलिमा, वक्त आ गया है कि अब जवाब दें- - -
कि लाखों, करोरों, अरबों बल्कि उस से भी कहीं ज़्यादः बरसों से इस कायनात को चलाने वाला अल्लाह क्या चौदह सौ साल पहले सिर्फ तेईस साल चार महीने (मोहम्मद का पैगम्बरी अय्याम) के लिए अरबी जुबान में बोला था? वह भी सीधे नहीं, किसी फ़रिश्ते जिब्रील के ज़रीआ, वह भी बाआवाज़ बुलंद नहीं काना-फूसी से? अवाम कहते रहे कि जिब्रील आते हैं तो सब को दिखाई क्यूँ नहीं पड़ते? जो कि उनका सही मुतालबा था और मोहम्मद बहाने बनाते रहे। क्या उसके बाद अल्लाह को साँप सूँघ गया कि ख़ुद साख्ता रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई और जिब्रील अलैहिस्सलाम रेहलत फरमा गए? किर्द गार ए रोज़गार के काम तो सारे के सारे बदस्तूर चल रहे हैं, मगर झूठे क़ुरआनी अल्लाह और उसके ख़ुद साख्ता रसूल के फरेब में आ जाने वाले मुसलमानों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, मुस्लमान वहीँ है जहाँ सदियों पहले था, उसके हम रकाब यहूदी, ईसाई और दीगर कौमें आज हम मुसलमानों को सदियों पीछे माज़ी की तारीकियों में छोड़ कर रौशन दुन्या में बढ़ गए हैं. हम मोहम्मद की गढ़ी हुई जन्नत के फरेब में ही नमाज़ों के लिए वज़ू, रुकू और सजदे में मुब्तिला है. मुहम्मदी अल्लाह उन के बाद क्यूँ उम्मत से कलाम नहीं कर रहा है? जो कलाम उसके नाम से किए गए है, उन में कितना दम है? ये सवाल तो आगे आएगा जिसका फितरी जवाब इन बदमआश आलिमो को देना होगा....
क़ुरआन का पोस्ट मार्टम खुली आँख से देखें "हर्फ़ ए ग़लत" का सिलसिला जारी होने वाला है. अपने अन्दर तब्दीली लाएँ , मुस्लिम से मोमिन हो जाएँ और ईमान की बात करें. आप अगर ज़मीर रखते हैं तो सदाक़त को ज़रूर समझेंगे और अगर इसलाम की कूढ़ मग्ज़ी ही ज़ेह्न में समाई हुई है तो जाने दीजिए अपनी नस्लों को तालिबानी जहन्नम में।

'मोमिन'

Wednesday, April 22, 2009

बेदारियाँ -(२)

मुस्लिम नहीं 'मोमिन'

मुसलमानों! बहुत से मोमिन इस्लामी दुन्या में पैदा हो चुके हैं, जो तुम को नजात दिलाना चाहते हैं इसलाम की खुद से तस्लीम शुदा जेहनी गुलामी से और दावत देते हैं ईमान ए अस्ल की जिसका कोई अल्लाह नहीं, कई रसूल नहीं, कोई दोज़ख नहीं कोई फरेबी जन्नत भी नहीं। ज़िंदगी जो कुछ है इसी दुन्या तक है, इसी धरती तक है। तुम्हारा अगला जनम भी कोई नहीं है और न क़यामत कोई कि दोबारा जिंदा किए जाओगे, तुम्हारा अगला जन्म अगर कुछ है तो नसले इंसानी है, जैसे हर मखलूक और हर शै की होती है. इसके लिए कुछ करते रहो तो यही कारे खैर है. इस धरती को सजाना संवारना ही अपनी इबादत समझो, अगर इबादत का शौक़ रखते हो. सदाक़त को जीना बड़ी मुश्किल इबादत है, वोह करो, जितना हो सके तुम सदाक़त को जियो, इस से बड़ा तप कोई नहीं है, इस तपस्या को कर के आजमाओ. पूजा पाठ, नमाज़ रोजा, तो तप की अवमानना, एवं अपमान ही नहीं इबादत की परछाईं हैं, इसका का मज़ाक हैं. मुस्लिम से मोमिन हो जाओ, इसलाम से ईमान पर आओ. बहुत आसान है और बहुत कठिन भी मगर इंसानियत का तकाज़ा यही कह रहा है कि हमको मोमिन बनना चाहिए. बाकी लोग तुम्हारी पैरवी में तुम्हारे पीछे भागे हुए आएँगे. ध्यान रहे ईमान दार बनना है, नाम दार नहीं, माल दार नहीं, शोहरत दार नहीं, सिर्फ़ ईमानदार. इन ईमान फरोश मुसलमान ओलिमा से बे खौफ़. इन की तहरीक गुलामी ए इस्लाम के खिलाफ मोमिन बन जाओ. तुम्हारा मिशन होगा गैरत मंद कौमे मोमिन जो इस के सिवा कुछ नहीं जानते कि इंसान फिर्फ़ इन्सान है और इंसानियत उसका मज़हब है, आज इसलाम उस पर थोपा हुवा एक जुर्म है। जिस मुल्क में रहते हो, वहां का कानून और उसका आईन तुम्हारी वफ़ा दारी है और उसे वक़्तन फ़्वक़्तन बदलते रहना तुम्हारा हक है.

'मोमिन'

Tuesday, April 21, 2009

अलबेदार


बेदारियाँ -१ (२२-४-२००९)
शुरू करता हूँ बइस्म् ए सिद्क़ और ईमान के साथ- - -

मुसलामानों! जागो तुम आज कुछ ज़्यादह ही अपने दुश्मनों से घिरे हुए हो, वैसे तुम तो हमेशा से ही खतरों से घिरे रहते हो। जब तुम पर कोई खतरा लाहक़ होता है तो उल्टे तुम्हारे मज़हबी रहनुमा तुमको ही दोष देते हैं कि तुम दीन से हटते जा रहे हो और तुम को तुम्हारा माज़ी याद दिलाते हैं जब तुम हुक्मरान हुवा करते थे. हालाँकि तुम मुस्लिम अवाम हमेशा दीन दार रहे हो और आज सब से बेहतर मुस्लमान हो. फिर भी वह तुम को पहला हल बतलाते है कि नहा धो कर सब से पहले तुम तौबा करके नए सिरे से फिर से मुस्लमान बन जाओ और हो जाओ पंज वक्ता नमाजों के पाबन्द, उनका कहना मानो। दर अस्ल यही मुसलमानों के साथ कौमी हादसा है. मुस्लमान बेदार होने की दर पे होता है कि ये दीनदार उसे नींद की गोलियां एक बार फिर से देकर सुला देते हैं. क़ौम को सही मानों में बेदार होना है, इस के लिए क़ौम को बहुत बडी जेसारत करनी होगी. इसलाम को नए सिरे से समझना होगा, कुरआन की गहराइयों में जाना होगा जहाँ खौफ नाक नफ़ी के पहलू पोशीदा हैं, जिसे हर आलिम जनता है, नहीं जानती तो मुस्लिम अवाम। जिसे हर हिदू विद्वान् (अमानवीय मूल्यों का कपटी ज्ञान धारक) जनता है मगर चाहता है कि मुसलमान इस अंध विश्वास और आपसी कलह में हमेशा मुब्तिला रहे ताकि ये "पिछड़ा वर्ग विशेष" कहलाए. ओलिमा अगर क़ुरआनी हकीक़त मुसलमानों पर ज़ाहिर कर दें तो वोह गोया खुद कशी कर लें. "अलबेदार" ने बीडा उठाया है कि ईमानदारी के साथ मुसलमानों को जगाएगा और थोडी सी तब्दीली की राय देगा कि तुम " मुस्लिम से मोमिन हो जाओ" इसलाम को तस्लीम किया है जिसके पाबन्द हो. इस पाबन्दी को ख़त्म करदो और ईमान को कुबूल कर लो जो कि इन्सान का अस्ल और इन्सान का दीन है, जैसे धर्म कांटे का असली और फितरी दीन है उसकी सही तौल, फूल का असली और फितरी दीन है महक, और इन्सान का असली और फितरी दीन है इंसानियत। बस ये ज़रा सी तब्दीली धीरे से दिल की गहराई में जाकर तस्लीम कर लो फिर देखो कि तुम क्या से किया हो गए. तुम्हें अपनी तहज़ीब ओ तमद्दुन, अपना कल्चर अपनी ज़बान, अपना लिबास, अपना रख रखाव और तौर तरीका कुछ भी नहीं बदलना है, बदलना है तो सिर्फ सोच और वह भी बहुत शिद्दत के साथ कि बड़े ही नाज़ुक दौर से मुस्लमान कही जाने वाली क़ौम तबाही के दहाने पर है. अपने बच्चों को जदीद तालीम दो, दीनी तालीम और तरबीयत से दूर रक्खें. मौलानाओं, आलिमों, मोलवियों के साए से बचाएँ, क्यूंकि यही हमेशा से मुसलमानों के पस्मान्दगी के बाईस रहे है.

'मोमिन'