Tuesday, May 5, 2009

हर्फ़ ए ग़लत (यानी क़ुरआनी हक़ीक़त)


सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा
(पहली किस्त)

ईमान और ईमानदारी की बात


"शुरू करता हूँ मैं अपने ज़मीर की आवाज़, ज़र्फ़ के मेयार, इल्म ए जदीद की गवाही और ईमान ए फितरत के रौशन सदक़त्तों के साथ कि जो कुछ भी मेरी नियत होगी, वास्ते फलाह ए मखलूक और बराए इंसानियत होगी. किसी से लगाव होगा न किसी से बैर और न ही किसी का डर या लिहाज़,"मैं एक मोमिन हूँ जो ईमान को हक और फितरी तकाजों पर नापता, तोलता और मानता है." बकौल ग़ालिब - - -

वफ़ा दरी बशर्ते उस्तवारी असल ए ईमान है.

मुस्लिम बहार सूरत इसलाम को तस्लीम किए हुए होता है, चाहे वह बात हक हो या नाहक. इस्लाम इस धरती पर नाजायज़ निजाम है जो मज़हब ए नाकिस तो हो सकता है, धर्म नहीं, ईमान नहीं. माले गनीमत के मज़्मूम ज़रीया मुआश ने इसे नई जहत दे दी है जो की धीरे धीरे एक बड़ी सूरत बन कर जंगी सनत अख्तियार कर गया है. क़त्ताल, जज़्या और मुस्लमान बन जाने की सूरत में ज़कात की भरपाई, अवाम के साथ ज़ुल्म, ज़्यादती और ना इन्साफी के सिवा इसलाम ने दुन्या और इंसानियत को और कुछ नहीं दिया. इसलाम ने दुन्या पर जो कहर ढाया है, और जो इंसानी खून पिया है, कसी दूसरी तहरीक ने नहीं. माजी की परदापोशी नहीं की जा सकती. कुरान खुद साख्ता रसूल अल्लाह मुहम्मद की गढ़ी हुई बकवास है जिस को किताब ही शक्ल देकर कलाम ए इलाही बना दिया गया है. यह किताब नफरत, तशद्दुद, बोग्ज़, मारकाट और न इंसाफी सिखलाती है, इंसानों में आपस में निफाक पैदा करती है, जंग जंग और जंग, इंसानी समाज को तो पुर अम्न रहने ही नहीं देती. नई इंसानी क़द्रें हैं कि इसको बर्दाश्त करके भी मुसलमानों को राय दे रही हैं कि वह अज़ दस्त खुद कुरानी सफ़हात को फाड़ कर नज्र खाक करदें, यह उनकी नेक सलाह है, वरना वह चाहें तो खुद मुसलमानों को इन के बुरे अंजाम तक पहुंचा सकते हैं. मुसलमानों ने कालिमा ए नामुराद को पढ़ कर सिर्फ़ अपना आकबत संवारा है(दर अस्ल ये खुद फरेबी है), दुन्या को दिया क्या है? दुन्या में जो कुछ है इन्हीं माददा परस्त मगरीबी ममालिक की देन है और तमाम साइंस दानों के इल्म की बरकतें हैं, जिनको यह आकबत के सौदागर आलिमान दीन नेहायत बेगैरती के साथ भोग रहे हैं.

अब मैं नादर क़ौम की जुबूं हाली के असबाब पर आता हूँ. इसलाम अरबों की बद तरीन मुआशी बद हाली की हालत में अपनी न मुरादी के साथ वजूद में आया था. डाका ज़नी,शब खून, और लूट पाट अभी तक तारीख इंसानी में जुर्म हुआ करता था, माल ए गनीमत कह कर मुहम्मद ने इसे जायज़ करार दे दिया. मज़हब के नाम पर बेकारों को जंगी लूट की आसान रोज़ी मिल गई, बनू नसीर और खैबर जैसी हजारों बस्तियां इस नई वबा से तबाह ओ बर्बाद हुईं. दूसरी तरफ " इस्लामी इल्म ए जेहालत" का रूह्जन मुस्लिम हुक्मरानों ने बढाया जिस से एक नया तबका पैदा हुवा जो की जंगी ससऊबतों से बचना चाहता था, वोह इस में लग गया. यह तालीम याफ़्ता मगर बुज़ दिल गिरोह जोर कलम दिखलाने लगा और वह ला खैरा और जाहिल गिरोह ज़ोर ए तलवार. फिर क्या था झूट, दरोग, लग्व, मुबालगा, और अययारी के पुल बंधने लगे, जंगों में फ़रिश्ते लड़ने लगे, अल्लाह मुदाखलत करने लगा और जिब्रील अलैहिस सलाम मुहम्मद के हम रकाब हुए. सैकडों साल से इस इल्म जारहय्यियत में दानिश मंदी और फ़ल्सफ़े भरे जा रहे हैं. मुसलमानों के सबसे बड़े मुजरिम यह मरदूद ओलिमा हैं. यह नफ़ी में मुसबत पहलू निकलने में माहिर होते हैं. जाहिल को उम्मी लिख कर उसकी नाकबत अन्देश्यों में, दूर अन्देश्याँ भरते रहते हैं. हमेशा ही इनके मक्र और रिया कारियों का बोलबाला रहा है, कई बार इनका सर भी ज़हरीले नागों की तरह कुचला गया है और चीन की तरह ही इन पर पाबन्दी भी लगाई गई है मगर यह कमबख्त होते हैं बड़े सख्त जान. आज इन का उरूज है. हिदोस्तान का जम्हूरी निजाम इनके लिए फलने फूलने के लिए बहुत साज़गार है. इनको परवाह नहीं मुसलमानों की बदहाली की, इनकी बाला से, इनको तो मुसलमानों पर इकतेदार चाहिए और माल ए मुफ़्त के साथ साथ इज्ज़त मुआबी. इनका एक मुनज्ज़म गिरोह बना हुवा है जो मुस्लिम मुआसरे को चारो तरफ से जकडे हुए है. बहुत बिडला कोई होगा जो इनके जाल से बचा हुवा होगा. जेहाद की लूट ख़त्म हो चुकी है मगर दर पर्दा मदरसे की तालीम मुसलमानों को मुतास्सिर किए हुए है. यह धूर्त ओलिमा हिंदुस्तान की सियासत में चिल्लाते फिरते हैं की इसलाम अम्न का अलम बरदार है. कोई इन से पूछे की मदरसे में पढाई जाने वाली कुरान और हदीस किया कोई और हैं या वही जिनमें जंग और नफरत की सडांध है? माले गनीमत जो कभी गैर मुस्लिमों से बज़ोर ए तलवार मुस्लमान वसूल किया करते थे, अब वह काम हर आलिम मुसलमानों से जज़्या किसी न किसी शक्ल में ले रहा है. इस से मुसलमानों का दोहरा नुकसान हो रहा है कि इसके लिए उनको इल्म ए नव से महरूम रखा जा रहा है, दूसरा माली नुकसान और कभी कभी जानी नुकसान भी. मुसलमानों की भलाई इसी में है की सरकार इस मुस्लिम इशू को ही बंद करे, बहैसियत मुस्लमान कहीं पर कोई रिआयत न हो. अक़ल्लियत का ख्याल ही खाम है, इसे वर्ग विशेष कहना बंद हो. सरकार ने जो स्कूल कालेज खोल रखे हैं, वहां कोई भेद भाव नहीं है, हर बच्चा वहां तालीम हासिल कर सकता है. जो इसको तर्क करके मदरसा जाता है इसकी ज़िम्मेदारी सरकार क्यूं ले? बल्कि ऐसे लोगों पर नजर ए तहकीक़ रहे जो इन मदरसों में पढ़ कर तालिबानी राहों पर जाने के लिए अमादा किए जाते हैं. मैं मुसलमानों को आगाह करता हूँ कि तुम्हारा मज़हब इसलाम मुकम्मल तौर पर गलत है जिस पर सारा ज़माना लानत भेज रहा है. तुम्हारे यह आलिम तुम्हारे मुजरिम हैं. इनको समझने की कोशिश करो. अभी सवेरा है ,जग जाओ, जागना बहुत आसान है, बस दिल की आँखें खोलना है. तुम्हें तर्क ए इसलाम करके खुदा न खास्ता हिन्दू नहीं बनना है, न क्रिशचन, मामूली से फर्क के साथ एक ठोस मोमिन बनाना है. तुम्हारा नाम, तुम्हारा कल्चर, तुम्हारा तमद्दुन, रस्म ओ रिवाज, ज़बान कुछ भी नहीं बदलेगा, बस नजात पाओगे इस झूठे अल्लाह से जिसको मुहम्मद ने चौदह सौ साल पहले गढा था. नजात पा जाओगे उस खुद साखता रसूल से और उसकी जेहालत भरे एलान कुरान और हदीस से जो तुम्हारे ऊपर लगे हुए दाग है.

'मोमिन'

कुरआन कहता है


"ऐ लोगो! परवर दिगर से डरो जिसने तुमको एक जानदार से पैदा किया और इस जानदार से इंसान का जोड़ा पैदा किया और इन दोनों से बहुत से मर्द और औरतें फैलाईं और क़राबत दारी से भी डरो. बिल यक़ीन अल्लाह ताला सब की इत्तेला रखते हैं

"सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (१)

क़ुरआन में मुहम्मद तौरेती विरासत को दोहरा रहे हैं कि आदम की पसली से हव्वा की रचना हुई और वह आदम की जोड़ा हुईं, उन से सुब्ह ओ शाम लड़का लड़की होते रहे और जोड़े बनते गए, इस तरह कराबत दारियां जमीन पर फैलती गईं, वह भी सिर्फ साढ़े छ हज़ार साल पहले जब कि इंसान का वजूद साढ़े छ करोड़ साल पहले तक हो सकने के आसार हम को हमारी साइन्सी मालूमात बतलाती है। लाखों साल की पुरानी इंसानी इतिहास स्कूल के बच्चों को पढाया जा रहा है और मुस्लिम क़ौम की क़ौम आज भी इस आदम और हव्वा साढ़े छ हज़ार साल पहले की कहानी पर यक़ीन रखती है। अल्लाह कहता है उससे डरो, कराबत दारों से डरो, भला क्यूँ? इस लिए कि अगर डरेंगे नहीं तो इन जेहालत की बातों का मजाक नहीं उडाएँगे? मुहम्मदी अल्लाह कभी जानदार से बेजान को निकलता है, तो कभी बेजान से जानदार को, आदम को मिटटी से बना कर जान डाल दिया तो अभी पिछली सूरह में ईसा गारे की चिडिया बना कर, उसकी दुम उठाकर उस में फूंक मारते है और वह फुर्र से उड़ जाती है। यह क़ुरआन नहीं बाजी गारी का तमाशा है, मुसलमान तमाशा बने हुए हैं और सारा ज़माना तमाशाई। शर्म तुम को मगर नहीं आती

" जिन बच्चों के बाप मर जाएँ तो उनका मॉल उन्हीं तक पहुँचते रहो, अच्छी चीज़ को बुरी चीज़ से मत बदलो और अगर तुम्हें एहतेमाल हो कि यतीम लड़कियों के साथ इंसाफ न कर सकोगे तो औरतों से जो तुहें पसंद हों निकाह कर लो, दो दो, तीन तीन या चार चार, बस कि इंसाफ हर एक के साथ कर सको वर्ना बस एक। और जो लौंडी तुम्हारी मिलकियत में है, वही सही,"

सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (2-3)

जंग जूई का दौर था, मर्द खून खराबे में मुब्तेला रहा करते थे जिस की वजह से औरतें इफ़रात हुआ करती थीं, बेहतर ही हल था यह कि साहिबे सरवत मर्दों के किफालत में दो दो तीन तीन या चार चार औरतें आ जाया करती थीं, बनिसबत हिन्दू समाज के जहाँ औरतें खैराती मरकजों को, माँ, बहन, बीवी का मक़ाम न पा कर, पंडो को अय्याशी के लिए देदी जाती थीं, जहाँ उनकी ज़ईफी दर्द नाक हो जाया करती थी। उस वक़्त बे निकाही लौडियां मुबशरत के लिए जायज़ हुआ करती थीं, खुद मुहम्मद लौडियां रखते थे. एक लौंडी मारिया से तो इब्राहीम नाम का एक बच्चा भी हुआ था जो ढाई साल का होकर मर गया दूसरी लौंडी ऐमन से मशहूर ए ज़माना ओसामा हुवा जिसकी वल्दियत ज़ैद बिन हरसा (या ज़ैद बिन मुहम्मद) थी . जीती हुई जंगों में गिरफ्तार औरतें लौंडियाँ हुआ करती थीं. इज्तेहाद यानी परिवर्तन इर्तेकई (रचना काल) मराहिल का तकाज़ा है कि आज लौंडियों के साथ मुबशरत हराम हो गया है, अब घर की खादमा को मजाल नहीं की उस पर बुरी नज़र डाली जाए। जब इतना बड़ा बदलाव आ चुका है कि मुहम्मद की हरकतें हराम हो चुकी है तो इर्तेकई तक़ाज़े के तहत बाकी मुआमले में बदलाव क्यूँ नहीं?

निजाम दहर बदले, आसमां बदले, ज़मीं बदले।कोई बैठा रहे कब तक हयाते बे असर ले के.
अल्लाह यतीम के मॉल खाने को आग से पेट भरने की मिसाल देता है. कबीले में मुखिया के मर जाने के बाद विरासत की तकसीम अपने आप में पेचीदा बतलाई गई है, जो कि आज लागू नहीं हो सकती. क़ुरआन में जो हुक्म अल्लाह देता है वह इतना मुज़बज़ब और गैर वाज़ह है कि आज इस की बुन्याद पर कोई क़ानून नहीं बनाया जा सकता. आप सुनते होंगे कि फ़त्वा फ़रोश कैसी कैसी मुताज़ाद गोटियाँ लाते हैं. उनका हर फ़ैसला लाल बुझक्कड़ का फरमान जैसा होता है.
" ये सब एहकम मज़कूरह खुदा वंदी ज़ाबते हैं और जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह उसको ऐसी बहिषतों में दाखिल करेगा जिसके नीचे नहरें जारी होंगी. हमेशा हमेशा इसमें रहेंगे. यह बड़ी कामयाबी है."

सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (8-13)

यह क़ुरआन की आयत बार बार दोहराई गई है. अहले रीश (दाढ़ी) अपनी दढ़ियाँ इसके तसव्वुर से तर रखते हैं. इस मुहज्ज़ब दुन्या के लिए कुरानी निजाम ए हयात पर एक नजर डालिए जिसे पढ़ कर शर्म आती है - -

" तुम पर हराम की गई हैं तुम्हारी माएँ, और तुम्हारी बेटियाँ और तुम्हारी बहनें और तुम्हारी फूफियाँ और तुम्हारी खालाएँ और भतीजियाँ और भांजियां और तुम्हारी वह माएँ जिन्हों ने तुम्हें दूध पिलाया है और तुम्हारी वह बहनें जो दूघ पीने की वजह से हैं. तुम्हारी बीवियों की माएँ और तुम्हारी बीवियों की बेटियाँ जो तुम्हारी परवरिश में रहती हों, इन बीवियों से जिन के साथ तुम ने सोहबत की हो और तुम्हारी बीवियों की बेटियाँ या दो सगी बहनें."
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (23)

ऐसा नहीं था की मुहम्मद से पहले ये सारे रिश्ते रवा और जायज़ हुवा करते थे जैसा की आज मुस्लमान समझ सकते हैं. मगर कुरआन में कानून जेहालत मुरत्तब करने के लिए यह मुहम्मद की अध कचरी कोशिश है. इसे ही ओलिमा मुश्तहिर करके आप को गुमराह किए हुए हैं

" इस तरह से बीवी न बनाव कि सिर्फ मस्ती निलालना हो - - अलाह्दह होने के बाद आपसी रज़ामंदी से महर अदा करो. लौडियों से निकाह करो तो इनके मालिकों से इजाज़त लेलो. वह न तो एलान्या बदकारी करने वालियां हों, और न खुफ्या आशनाई करने वाली हों. मनकूहा लौंडियाँ अगर बे हयाई का इर्तेकाब करती हैं तो इन पर सज़ा निस्फ़ है, बनिस्बत आम मुस्लमान औरतों के. इस के बाद भी मर्द अगर ज़ब्त ओ सब्र से काम लें तो अल्लाह मेहरबान है."

सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (24-25)

ये सब कबीलाई बातें क्या आज कहीं पाई जाती हैं? लौंडियों और गुलामों का ज़माना गया उसकी बातें एक कौम की इबादत और तिलावत बनी हुई है, इस से शर्म नाक बात और क्या हो सकती है? एक दरमियानी सूरत नज़र आती है कि मुसलमान अज़ खुद नमाज़ों में इन आयतों को बज़ोर आवाज़ रोजाना पढा करें, शायद कभी कुरानी शैतान उनके सामने आकार खडा हो जाए और वह नमाजों पर लाहौल पढना शुरू करदें। बहार हल मुसलमानों को बेदार होना है।

." मर्द हाकिम हैं औरतों पर, इस सबब से की अल्लाह ने बाज़ों को बअजों पर फजीलत दी है ---- और जो औरतें ऐसी हों कि उनकी बद दिमागी का एहतेमाल हो तो इन को ज़बानी नसीहत करो और इनको लेटने की जगह पर तनहा छोड़ दो और उन को मारो, वह तुम्हारी इताअत शुरू कर दें तो उन को बहाना मत ढूंढो."

सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (34)

औरतों के साथ सभी धर्मों ने ज्यादतियाँ कीं हैं, बाकियों में औरतों ने नजात पा ली है मगर इस्लाम में आज भी औरत की हालत जैसी की तैसी है। जेहनी एतबार से औरतें मर्दों से कम नहीं हैं, उन्हें अच्छी तालीम ओ तरबीयत की ज़रुरत है. जिस्मानी एतबार से वोह सिंफे नाज़ुक ज़रूर हैं और यही उनकी ताक़त है जो मर्द की कशिश का बाईस बनती है. मर्द की शुजाअत और औरत कि नज़ाक़त, दोनों मिल कर ही कायनात को जुंबिश देते हैं. मखलूक की रौनक इन्हीं दोनों अलामतों पर मुनहसर करती हैं. हाकिम और महकूम कहना इस्लामी बरबरियत है, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

." अल्लाह मुसलमानों को मिल कर रहने की नसीहत देता है, (जैसा कि तमाम मौलाना आम मुसलमानों को दिया करते हैं मगर अंदर ही अंदर उनको आपस में लड़ाए रहते हैं ताकि उन की डेढ़ ईंट की मस्जिद कायम रहे.)अल्लाह खालिके मख्लूक़ अपनी कमज़ोरी बतलाता है कि आदमी कमज़ोर पैदा किया गया है, फिर अपनी खूबियाँ गिनाता है और अपनी गुन गाता है. आयातों में उसका अपना मुँह है, जो मुँह में आता है बोलता चला जाता है. अजीयत पसंद कुरआन उठा कर देख लें."

सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (27-33)

" खुद साख्ता रसूल का अल्लाह बखीलों को बिलकुल पसंद नहीं करता, इन में हज़ार कीड़े निकालता है, और खर्राचों को बखीलों से ज्यादा ना पसंद करता है. दोनों के बुरे अंजाम से ज़मीन से लेकर आसमान तक के लिए आगाह करता है. बस पसंद करता है तो सिर्फ़ उन शाह खर्चों को जो अल्लाह और उस के रसूल की राह में खर्च करे. कोई मुस्लमान कोई बड़ा खर्च करदे तो मुहम्मद के दिल को धक्का लगता है कि रक़म तो अल्लाह के बाप की थी. उनकी पैरवी मुंबई के सय्यदना कर रहे हैं कि उनकी इजाज़त के बगैर क़ौम अपने बेटे का मूडन तक नहीं कर सकती, गधी क़ौम पहले उनको टेक्स अदा करे. हम ऐसे बोहरों और खोजों जैसों को गधा ही कहते हैं जिनके धर्म गुरू पेरिस मे रह कर उनकी दौलत पर ऐश करते हैं." सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (37-42)

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