अलबेदार
हम बहैसियत मुसलमान इस वक्त अपने विरोधियों के निशाने पर हैं, ख्वाह वह भू भाग का कोई भी टुकडा क्यों न हो, मुस्लिम शाशन में हो, या गैर मुस्लिम प्रभुत्व में हो, छोटा सा गाँव हो, कस्बा हो, छोटा या बड़ा शहर हो, हर जगह मुसलमान अपने आप को असुरक्षित मानता है, खास कर वह मुसलमान जो वक्त के अनुसार बेहतर और जागरुक समाजी ज़िन्दगी जीने का हौसला रखता है. उस के लिए दूर दूर तक आंतरिक और वाह्य दोनों तौर पर रोड़े बिखरे हुए हैं. वाह्य रूप में देखें तो दुन्या इन मुसलमानों के लिए कोई नर्म गोशा इस लिए नहीं रखती कि इन का अतीत उनके प्रति इन्तेहाई दागदार है, और आंतरिक सूरते हाल ऐसी है कि ख़ुद इनका ही समाजी वातावरण इन्हें सदियों पीछे ले जाना चाहता है. हर संवेदन शील मुसलमान अपने ऊपर मंडराते खतरे को अच्छी तरह महसूस कर रहा है. वह अपने अन्दर छिपी हुई इस की वज़ह को भी अच्छी तरह जानता बूझता है. बहुत से सवाल वह ख़ुद से करता है, अपने को लाजवाब पाता है. ख़ुद से नज़र नहीं मिला पाता, जब कि वह जानता है हल उसके सामने अपनी उंगली थमाने को तय्यार खड़ा है क्यूंकि उसके समाज के बंधन उसके पैर में बेडियाँ डाले हुए हैं. वह शुतुर मुर्ग कि तरह सर छिपाने के हल को क्यूं अपनाए हूए है? वह अपनी अस्तित्व को किस के हवाले किए हुए है? इसी कशमकश में वह ख़त्म हो जाता है, और अपनी नस्लों को खौफनाक भविष्य में ढकेल जाता है.
हमें चाहिए हम आँखें खोलें, सच्चाइयों का सामना करते हुए उनको तस्लीम कर लें। याद रखें सच्चाई को तस्लीम करना ही सब से बड़ी अन्दर की बहादुरी है. दीन के नाम पर रूढियों(क़दामातों) पर डटे रहना जहालत है. कल की अलौकिक (माफौकुल-फितरत) बातें और मिथ्य (दरोग बाफियाँ) आज के साइंस्तिफिक हल २+२=४ कि तरह सच नहीं हैं. आधुनिक और जदीद तरीन सत्य और सदाक़तें अपने साथ नई मूल्य लाई हैं. इन में शहादतें और पाकीज़गी है. वह अतीत के मुजरिमों का बदला इनकी नस्लों से नहीं लेतें. वह क़ुरआनी आयातों की तरह काफिर की औरतों और बच्चो को "मिन जुमला काफिर" करार नहीं गरदान्तीं (गिनते). वह तो काफिर और मोमिन का अंतर भी नहीं करतीं. इन में प्रति-शोध ( इन्तेक़ाम) का कोई खुदाई हुक्म भी नहीं है, न इन का कोई मुन्तक़िम(बदला लेने वाला) खुदा है. हमें इन जदीद सदाकतों और पवित्र मूल्यों को तस्लीम कर लेने की ज़रूरत है. हमें तौबा इन के एहसासात (अनुभूतियों)के सामने आकर करना चाहिए और हम तौबा जाने कहाँ कहाँ वहमों और गुमानों के सामने करते फिर रहे हैं, यह नई सदाकतें, यह पाक क़द्रें किसी पैगम्बर की ईजाद नहीं, किसी समूह की नहीं, किसी कबीले की नहीं, किसी भू-भाग की नहीं, हजारों सालों से इंसानियत के पौदों के फूल की खुशबू से यह वजूद में आई है. बिना किसी शंका, या शको शुबहा इन को "हर्फे-आखीर" और "आखिरी निज़ाम" कहा जा सकता है. ये रोज़ बरोज़ और ख़ुद बखुद सजती और संवारती चली जाएंगी. इन का कोई अल्लाह नहीं होगा, कोई पैगम्बर नहीं होगा, कोई जिब्रील नहीं होगा, न कोई शैतान ये मज़हबे-इंसानियत दुन्या का आखरी मज़हब होगा, आखरी निजाम होगा. अगर सब से पहले मुसलमान इसे कुबूल करें तो इन के लिए सब से बेहतर रास्ता होगा. आज दो राहे पर खड़ी क़ौम के लिए सही हल. दुन्या की कौमों में सफ़े-अव्वल में आने का एक सुनहरा मौक़ा और short cut रास्ता. इसके बाद बाकी भारत मानवता के अनुसरण में होगा.
हमें चाहिए हम आँखें खोलें, सच्चाइयों का सामना करते हुए उनको तस्लीम कर लें। याद रखें सच्चाई को तस्लीम करना ही सब से बड़ी अन्दर की बहादुरी है. दीन के नाम पर रूढियों(क़दामातों) पर डटे रहना जहालत है. कल की अलौकिक (माफौकुल-फितरत) बातें और मिथ्य (दरोग बाफियाँ) आज के साइंस्तिफिक हल २+२=४ कि तरह सच नहीं हैं. आधुनिक और जदीद तरीन सत्य और सदाक़तें अपने साथ नई मूल्य लाई हैं. इन में शहादतें और पाकीज़गी है. वह अतीत के मुजरिमों का बदला इनकी नस्लों से नहीं लेतें. वह क़ुरआनी आयातों की तरह काफिर की औरतों और बच्चो को "मिन जुमला काफिर" करार नहीं गरदान्तीं (गिनते). वह तो काफिर और मोमिन का अंतर भी नहीं करतीं. इन में प्रति-शोध ( इन्तेक़ाम) का कोई खुदाई हुक्म भी नहीं है, न इन का कोई मुन्तक़िम(बदला लेने वाला) खुदा है. हमें इन जदीद सदाकतों और पवित्र मूल्यों को तस्लीम कर लेने की ज़रूरत है. हमें तौबा इन के एहसासात (अनुभूतियों)के सामने आकर करना चाहिए और हम तौबा जाने कहाँ कहाँ वहमों और गुमानों के सामने करते फिर रहे हैं, यह नई सदाकतें, यह पाक क़द्रें किसी पैगम्बर की ईजाद नहीं, किसी समूह की नहीं, किसी कबीले की नहीं, किसी भू-भाग की नहीं, हजारों सालों से इंसानियत के पौदों के फूल की खुशबू से यह वजूद में आई है. बिना किसी शंका, या शको शुबहा इन को "हर्फे-आखीर" और "आखिरी निज़ाम" कहा जा सकता है. ये रोज़ बरोज़ और ख़ुद बखुद सजती और संवारती चली जाएंगी. इन का कोई अल्लाह नहीं होगा, कोई पैगम्बर नहीं होगा, कोई जिब्रील नहीं होगा, न कोई शैतान ये मज़हबे-इंसानियत दुन्या का आखरी मज़हब होगा, आखरी निजाम होगा. अगर सब से पहले मुसलमान इसे कुबूल करें तो इन के लिए सब से बेहतर रास्ता होगा. आज दो राहे पर खड़ी क़ौम के लिए सही हल. दुन्या की कौमों में सफ़े-अव्वल में आने का एक सुनहरा मौक़ा और short cut रास्ता. इसके बाद बाकी भारत मानवता के अनुसरण में होगा.
'मोमिन'
ऐसा कुछ नहीं है..पूरे विशव में भारत सबसे सुरक्षित देश है..सबके लिए.....
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