tag:blogger.com,1999:blog-2558277982809350112024-03-08T10:52:04.704-08:00Albedar - The Hidden Truthमैं एक मोमिन हूँ. मेरा धर्म और मज़हब है ईमान, वह ईमान जो तराज़ू की सही तौल और फूल की खुशबू होता है. वैसे ही बहैसियत इन्सान, इंसानियत मेरा ईमान और धर्म है. मौजूदा हिंदुस्तान, पाकिस्तान, तालिबिस्तान, और दुन्या के तमाम तने तने तानों को तनाव मुक्त करके एक मुक्तिस्तान में साँस लेना मेरा सपना है, जहाँ धर्म ओ मज़हब के पंडाल न तने हों. अब इन्सान इन से मुक्ति चाहता है. बहुत दोहन कर चुके और कर रहे हैं यह मानवता का. हम मुक्तिस्तान की ओर रुख करें, आइए आप भी हमारे साथ - - -
'मोमिन'
'मुक्तिस्तान'MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.comBlogger18125tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-87839458050705271732009-05-29T22:25:00.000-07:002009-05-29T23:26:38.846-07:00हर्फ़ ए गलत (क़ुरआनी हक़ीक़त)<p align="center"><br /><span style="font-size:180%;color:#003333;">सूरह अल्मायदः ५</span></p><span style="font-size:180%;color:#003333;"><span class=""></span><p align="justify"><br /></span><span style="font-size:130%;color:#990000;">"ऐ ईमान वालो! अहदों को पूरा करो. तुम्हारे लिए तमाम चौपाए जो मुशाबेह इनआम के हों, हलाल किए गए, मगर जिन का ज़िक्र आगे आता है, लेलिन शिकार हलाल मत समझना, जिस हालत में तुम अहराम में हो। बेशक अल्लाह जो चाहे हुक्म दे,"<br /></span><span style="font-size:85%;">सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (1)<br /></span>मैं सिने बलूगत से पहले ईमान का मतलब लेन देन के तकाजों को ही समझता था (और आज भी सिर्फ़ इसी को समझता हूँ) मगर इस्लामी समझ आने के बाद मालूम हुआ कि ईमान अस्ल तो कुछ और ही है, वह है कलिमा ए शहादत के मुताबिक, अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखना, कसमें भी दो तरह की होती हैं, कसमे-आम और कसमे-पुख्ता। इन बारीकियों को मौलाना जब समझ जाते है कि अल्लाह कितना दर गुज़र करता है तो वह लेन देन की <span style="font-size:130%;color:#990000;">बेईमानी</span> भरपूर करते हैं. मेरे एक दोस्त ने बतलाया कि उनके कस्बे के एक मौलाना, मस्जिद के पेश इमाम, मदरसे के मुतवल्ली कुरान के आलिम, बड़े मोलवी, ग्राम प्रधान रहे हज़रात ने कस्बे की रंडी हशमत जान का खेत पटवारी को पटा कर <span style="color:#990000;">जीम का नुकता</span> बदलवा कर नीचे से ऊपर करा दिया जो जान की जगह <span style="color:#990000;">खान हो गया</span>. हज़रात के वालिद मरहूम का नाम <span style="color:#990000;">हशमत खान</span> था. विरासत हशमत खान के बेटे, बड़े मोलवी साहब <span style="color:#990000;">उमर खान</span> की हो गई, हशमत रंडी की सिर्फ एक बेटी छम्मी थी(अभी जिंदा है), उसने उसको मोलवी के क़दमों पर लाकर डाल और कहा" <span style="color:#009900;">मोलवी साहब इस से पेशा न कराएँगे, रहेम कीजिए, अल्लाह का खौफ़ खाइए - - -</span> " मगर मोलवी का दिल न पसीजा उसका ईमान कमज़ोर नहीं था, बहुत मज़बूत था। दो बेटे हैं, मेरे दोस्त बतलाते हैं दोनों डाक्टर है, और पोता कस्बे का चेयर मैन है। <span style="color:#006600;">रंडी और मदरसे की जायदादें सब काम आरही हैं. यह है ईमान की बरकत.</span> मुसलामानों के इस ईमानी झांसे में हो सकता है गैर मुस्लिम इन से ज्यादा धोका खाते हों कि ईमान लफ्ज़ को इन से जाना जाता है.<br />अहद की बात आई तो तसुव्वुर कायम हुवा "प्राण जाए पर वचन न जाए" मगर अल्लाह तो अहद के नाम पर चौपायों के शिकार की बातें कर रहा है। खैर, चलो शुक्र है दो पायों (यानी इंसानों) के शिकार से उसकी तवज्जो हटी हुई है, इस सूरह में शिकारयात पर अल्लाह का कीमती तबसरा ज्यादह ही है गो की आज ये फुजूल की बातें हो गईं हैं मगर मुहम्मदी अल्लाह इतना दूर अंदेश होता तो हम भी यहूदियों की तरह दुनिया के बेताज बादशाह न होते. खैर ख्वाबों में सही आकबत में ऊपर जन्नतों के मालिक तो होंगे ही. मोहम्मद शिकार के तौर तरीके बतलाते हैं क्यंकि उनके <span style="color:#6600cc;">मूरिसे आला इस्माईल इब्ने लौंडी हाजरा(हैगर) के बेटे एक शिकारी ही थे जिनकी अलामती मूर्तियाँ काबे की दीवारों में नक्श थीं, जिसे इस्लामी तूफ़ान ने तारीखी सच्चाइयों की हर धरोहर की तरह खुरच खुरच कर मिटा दिया. मगर क्या खून में दौड़ती मौजों को भी इसलाम कहीं पर मिटा सका है. खुद मुहम्मद के खून में इस्माईल के खून की मौज कुरआन में आयत बन कर बन कर बोल रही है. हिदुस्तानी मुल्ला की बेटी की तन पर लिपटी सुर्ख लिबास, क्या सफेद इस्लामी लिबास का मुकाबला कर सका है? मुहम्मद कुरआन में कहते है बेशक अल्लाह जो चाहे हुक्म दे, यह उनकी खुद सरी की इन्तहा है और उम्मत गुलाम की इंसानी सरों की पामाली की हद. एक सर कश अल्लाह बन कर बोले और लाखों बन्दे सर झुकाए लब बयक कहें, इस से बड़ा हादसा किसी क़ौम के साथ और क्या हो सकता है?<br /></span><span style="font-size:130%;color:#990000;">"तुम पर हराम किए गए हैं मुरदार, खून और खिंजीर का गोश्त और जो कि गैर अल्लाह के नाम पर ज़द कर दिया गया हो और जो गला घुटने से मर जाए, जो किसी ज़र्ब से मर जाए या गिर कर मर जाए, जिसको कोई दरिंदा खाने लगे, लेलिन जिस को ज़बह कर डालो."<br /></span><span style="font-size:85%;">सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (3)<br /></span>ज़रा जिंदगी की हकीक़तों में जाकर देखिए तो ये बातें बेवकूफ़ी की लगती हैं. आप की भूक कितनी है, हालत क्या हैं? हराम हलाल सब इन बातों पर मुनहसर करता है. किसी बादशाह ने मेहतरों को हलाल खोर का ठीक ही लक़ब दिया था, आज का सब से बड़ा हराम खोर रिशवत खाने वाला है. धर्म ओ मज़हब की कमाई खाने वाले भी खुद को हराम खोर ही समझें.<br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">"और अगर तुम बीमार हो, हालाते सफ़र मे हो या तुम मे से कोई शख्स इस्तेंजे से आया हो या तुम ने बीवियों से कुर्बत की हो, फिर तुम को पानी न मिले तो पाक ज़मीन से तैममुम करो यानी अपने चेहरों पर, हाथों पर हाथ फेर लिया करो."<br /></span><span style="font-size:85%;">सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (6)<br /></span>तैममुम भी क्या मज़ाक है मुसलमानों के मुँह पर, इसकी लोजिक कहीं से भी समझ में नहीं आती, सिवाए इसके की मुँह और हाथों पर धूल मल लेना, हो सकता है जहाँ मोलवी तैममुम कर रहा हो वहां कल किसी जानवर ने पेशाब किया हो? इस से बेहतर तो हवाई तैममुम था जैसे हवाई अल्लाह मियां हैं। मगर इसलाम में पाकी की बड़ी अहमियत है। इस तरह पाकी हफ्तों और महीनों बर क़रार रह सकती है भले ही कपडे साफ़ी हो जाएँ और इन से बदबू आने लगे. इसके बर अक्स एक कतरा पेशाब ताजे धुले कपडे में लग जाए तो मुस्लमान नापाक हो जाता है, यहाँ तक की अगर वोह कपडा वाशिंग मशीन में डाल दिया गया है तो तो उस के साथ के सभी कपडे नापाक हुए. नापाक कपडे की नजासत को बहते हुए पानी से इसलाम धोता है और जिस्म पर बैठी हुई गंदगी को तैममुम से जमी रहने देता है. देखने में आता है बनिए मगरीबी यू पी में मुसलामानों को पास बिठाना पसंद नहीं करते.<br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">"और किसी खास क़ौम की अदावत तुम्हारे लिए बाइस न बन जाए कि तुम अदल न करो. अदल किया करो कि वो तक़वा से करीब है."<br /></span><span style="font-size:85%;">सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (8)</span><br />मुहम्मद कभी कभी मसलहतन जायज़ बात भी कर जाते है.<br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">" अल्लाह लोगों से मुसलमान होने के बाद ही अच्छे कामों के बदले बेहतर आखरत के वादे करता है. बनी इस्राईल को उन के बारह सरदारों की तक़ररुरी की याद दिलाता है, जो कि युसुफ़ के भाई और हज़रत इब्राहीम के पड़ पोते थे. इन से इस्लामी नमाजें और ज़कात अदा कराता है. मुहम्मद अपने मज़हबी अरकान के साथ चौदह सौ साल पहले पैदा होते है और साढे तीन हज़ार साल पहले पैदा होने वाले यहूदियों से इस्लामी फ़राइज़ अदा कराते हैं, अपने ऊपर ईमान लाने की बातें करते हैं, गोया माजी बईद में दाखिल होकर तबलीगे इसलाम करते हैं और यहूदियों के नबियों को मुसलमान बनाते हुए अहद मौजूद में आँखें खोलते हैं. अल्लाह इन से क़र्ज़ लेकर इनके गुनाह दूर करने की बात करता है. मुहम्मद को हर रोज़ कोई न कोई बुरी खबर मिलती रहती है कि कोई टुकडी इनकी तहरीक से कट गई है. अल्लाह इनको तसल्ली देता है. नव मुस्लिम अंसार ताने देने लग जाते हैं, हम तो अंसार ठहरे, उन को भी मुहम्मद क़यामत तक के लिए बोग्ज़ और अदावत की वजेह से सवाब के एक हिस्से से महरूम कर देते हैं. मुहम्मद अपनी किताब को एक नूर बतलाते है, और इसकी रौशनी में ही राह तलाश करने की हिदायत करते हैं"<br /></span><span style="font-size:85%;">सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (9-16)<br /></span><span style="font-size:130%;color:#990000;">"बिला शुबहा वोह काफिर हैं जो कहते हैं अल्लाह में मसीह बिन मरियम हैं.आप पूछिए अगर कि अल्लाह मह्सीह इब्ने मरियम को और उनकी वाल्दा को और ज़मीन में जो हैं उन सब को हलाक करना चाहे तो कोई शख्स ऐसा है जो अल्लाह ताला से इन को बचा सके."<br /></span><span style="font-size:85%;">सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (17)<br /></span>*मुहम्मद ने कहना चाहा होगा कि मसीह इब्ने मरियम में अल्लाह है मगर आलम वज्द में कह गए अल्लाह में मसीह इब्ने मरियम है और कुरान को मुरत्तब करने वालों ने भी "मच्छिका स्थाने मच्छिका" ही कर दिया और कुछ बईद भी नहीं कि मुहम्मद कि इल्मी लियाक़त इस को दर गुजर भी कर सकती है. मुसलमान तो मानता है कुरआन में जो भूल चूक है उसका ज़िम्मेदार अल्लाह है. पूरी सूरह ही जिहालत से लबालब है, मुसलमान इसे कब तक वास्ते सवाब पढता रहेगा ?<br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">" और यहूदी व नसारह दावा करते हैं कि हम अल्लाह के बेटे हैं और महबूब हैं, फिर तुम को ईमानों के एवाज़ अजाब क्यूँ देंगे बल्कि तुम भी मिन जुमला और मखलूक एक आदमी हो."<br /></span><span style="font-size:85%;">सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (18)<br /></span>मिन जुमला उम्मी मुहम्मद का तकिया कलाम है वोह अक्सर इस लफ्ज़ को गैर ज़रूरी तौर पर इस्तेमाल करते हैं। यहाँ पर भी जो बात कहना चाहा है वोह कह नहीं पाए, अब मुल्ला जी उनके मददगार इस तरह होगे कि बन्दों को समझेंगे "अल्लाह का मतलब यह है कि - - -" गोया अल्लाह इनका हकला भाई हुवा. यहूद, नसारह अपने अपने राग गा रहे थे, मुहम्मद ने सोचा अच्छा मौक़ा है, क्यूँ न हम इस्लामी डफली लेकर मैदान में उतरें मगर उनके साथ बड़ा हादसा था कि वह उम्मी नंबर वन थे जिस को कठमुल्ला कहा जाए तो मुनासिब होगा.<br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">"मुहम्मद एक बार फी मूसा को लेकर नई कहानी गढ़ते है जो हर कहानी कि तरह बेसिर पैर कि होती है. पता नहीं उनको कोई पुर मज़ाक यहूदी मिल जाता है जो मूसा की फ़र्जी दस्ताने गढ़ गढ़ कर मुहम्मद को बतलाता है. उस पर उनके गैर अदबी ज़ौक़ कि किस्सा गोई के लिए भी सलीका ए गोयाई चाहिए. बस शुरू हो जाते हैं अल्लाह ताला बन कर - - - "वोह वक़्त भी काबिले ज़िक्र है कि जब - - - या इस तरह कि क्या तुम को इस किस्से के बारे में, मालूम है कि जब - - -"<br /></span><span style="font-size:85%;">सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (19-32)</span><br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">" जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते हैं और मुल्क में फसाद फैलाते फिरते हैं, उनकी यही सज़ा है कि क़त्ल किए जावें या सूली दी जावें या उनके हाथ और पाँव मुखलिफ सम्त से काट दिए जवे या ज़मीन पर से निकाल दिए जावें - - - उनको आखरत में अज़ाब अज़ीम है. हाँ जो लोग क़ब्ल इस के कि तुम उनको गिरफ्तार करो, तौबा कर लें तो जान लो बे शक अल्लाह ताला बख्स देगे, मेहरबानी फरमा देंगे."</span><br /><span style="font-size:85%;">सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (33-34</span>)<br />भला अल्लाह से कौन लडेगा? वोह मयस्सर भी कहाँ है? हजारों सालों से दुन्या उसकी एक झलक के लिए बेताब है, बाग़ बाग़ हो जाने के लिए, तर जाने के लिए, निहाल हो जाने के लिए सब कुछ लुटाने को तैयार है। उसकी तो अभी तक जुस्तुजू है, किसी ने उसे देखा न पाया सिवाय मुहम्मद जैसे खुद साख्ता पैगम्बरों के. उस से लड्ने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है। लडाई तो उसका एजेंट पुर अमन ज़मीन पर थोप रहा है. गौर तलब है की कैसे कैसे मज्मूम तरीके अपने मुखालीफों के लिए ईजाद कर रहा है जिस को मोहसिन इंसानियत यह ओलिमा हरम जादे कहते हुए नहीं शर्माते. मुहम्मद ने अपनी जिंदगी में लोगों का जीना दूभर कर दिया था जिसका गवाह कोई और नहीं खुद यह कुरान है. इसकी सजा मुसलसल कि शक्ल में भोले भाले इंसानों को इन आलिमो की वज़ह से मिलती रही है मगर यह आज तक ज़मीं से नापैद नहीं किए गए जाने कब मुसलमान बेदार होगा. इक कुरान उसके लिए ज़हर का प्याला है जो अनजाने में वह सुब्ह ओ शाम पीता है. मुहम्मद ही इस ज़मीन का शैतानुर्र रजीम है जिस पर लानत भेज कर इसे रुसवा करना चाहिए.<br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">"ए ईमान वालो! अल्लाह से डरो और अल्लाह का कुर्ब ढूंढो, उसकी राह में जेहाद करो, उम्मीद है कामयाब होगे."<br /></span><span style="font-size:85%;">सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (35)<br /></span><span style="font-size:180%;color:#3333ff;">याद रखें मुहम्मद दर पर्दा बजात खुद अल्लाह हैं और आप को अपने करीब चाहते हैं ताकि आप पर ग़ालिब रहें और आप से दीन के नाम पर जेहाद करा सकें। मुहम्मद दफ़ा हो गए हजारों मिनी मुहम्मद पैदा हो गए जो आप की नस्लों को जाहिल रखना चाहते हैं. अफ्गंस्तान, पाकिस्तान ही नहीं हिंदुस्तान में भी ये सब आप की नज़रों के सामने हो रहा है और अप की आँखें खुल नहीं रहीं। कोई राह नहीं है कि मैदान में खुल कर आएं. कमसे कम इस से शुरुआत करें की मुल्ला, मस्जिद और मज़हब का बाई काट करें. मत डरें समाज से, समाज आपसे है. मत डरें अल्लाह से, डरें तो बुराइयों से. अल्लाह अगर है भी तो भले लोगों का कभी बुरा नहीं करेगा. अल्लाह से डरने की ज़रुरत नहीं है. अल्लाह कभी डरावना नहीं होगा, होगा तो बाप जैसा अपनी औलाद को सिर्फ प्यार करने बाला,दोज़ख में जलाने वाला? उन पर लाहौल भेजिए.</span></p>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com31tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-16421863218015497082009-05-28T05:50:00.001-07:002009-05-28T05:50:21.584-07:00MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-9163481152844034562009-05-24T05:02:00.000-07:002009-05-26T09:10:26.577-07:00मोहम्मद उमर कैरानवी के नाम - - -<p>उमर साहब!</p><p>आप का तबसरा मेरे बारे में मौसूल हुवा, किताबी कीडे लग रहे हैं. सद बुद्धि से सदक़तों पर गौर करें,</p><p align="justify">" कागद की लेखी" में तज़ी उल वक्ती (समय की बर्बादी) मत किया करें. मैं मुहम्मदी और अहमदी जैसे मूर्खों की दुन्या में रहने वाला <span style="font-size:180%;color:#006600;">मोमिम</span> नहीं हूँ. मैं <span style="font-size:180%;color:#006600;">ईमान</span> पर ईमान रखने वाला मोमिन हूँ. आप को मालूम नहीं कि ईमान का इस्लाम ने इस्लामी करण करके इसकी पवित्रता में अशुद्धता की मिलावट कर दी है, अन्यथा ईमान की उम्र तो मानवता के साथ ही प्रारम्भ हो चुकी थी. आप जैसे कूप मंडूक तो कहेंगे कि मोह्सिने इंसानियत (मुहम्मद) से ही ईमान दारी और सारी अच्छाइयाँ प्रारम्भ हुईं और स्वयम्भू अंतिम अवतार (जिसके वर्तमान हिंदी कार्य वाहक आप बने हुए हैं) से ही तमाम नेकियाँ <span class="">समाप्त </span>हो गईं. दर असल आप की जीविका का संसाधन कदाचित इस्लामयात है, इस लिए शायद यह आप का खून बोल रहा है, धूर्त ओलिमा की तरह. दर अस्ल आप लोग अनजाने में इसलाम की मय्यत खा रहे हैं जब कि क़ौम के पक्ष में इसे दफना देने का तकाज़ा है। आप मेरे बारे में फरमाते हैं - - -इनके ब्लाग में झूठ देखोः</p><p align="justify"><span class=""></span><span style="font-size:130%;color:#990000;">" यह तो कभी न हो सकेगा की सब बीवियों में बराबरी रखो, तुमरा कितना भी दिल चाहे।"----</span><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (129)</span> </p><p align="justify">कुरआन कि यह बातें इसने खुद घड ली हैं, जो सूरत और आयत नम्बर ये देरहे हैं वह यह <span class="">हैः </span></p><p align="justify">मैं ने कोई झूट नहीं गढा है, कथित अनुवाद प्रसिद्ध आलिम शौक़त अली थानवी का है जो प्राथमिकता के साथ भारत में पढ़ी जाने वाली कुरान है इसे उठा कर देखें. अब आप उनसे निमटें . <span style="font-size:130%;color:#009900;">झूट गढ़ना मोमिन की प्रकृति नहीं होती. वह धर्म काँटे कि सच्चाई रखते हैं. </span>कुरान की चौदह प्रमाणित व्याख्याएँ हैं और सब में आपसी विरोधाभास हैं। कुरान विरोधाभास का केन्द्र विन्दु है। </p><br /><p align="justify">दूसरी बात अल्लाह का चैलेंज - - -</p><br /><p align="justify">तो बेशक कुरान जैसी फूहड़, वाहियात, बे सिर पैर की बकवास, जो किसी भी विधा शैली में न आती हो, कोई नहीं हो सकती. कुरान के लेखक की तरह कोई पागल कलम कार तो हो ही नहीं सकता अगर हो भी जाए तो मुस्लमान जैसे कद्र दान भेड़ बकरियां उसे कहाँ नसीब होंगी? अफसानो से बद तर अफसाने, झूट के पहाड़ जैसे किस्से मेराज और शाक्कुल <span class="">कमर (चंद्रमा को दो टुकडों में बाँट देना)</span> जैसे झूट, हिकमत का परिहास, बेजान अण्डों से जानदार चूजे का निकलना और जानदार मुर्गी से बेजान अण्डों का निकलना - - जैसी बेशुमार लाल बुझककड़ी उकदा कुशाइयाँ हैं- - आप चौदह सौ सालों तक अपनी चैलेंज की ढपली और बजाते रहिए. कोई बेवकूफ ही होगा जो इस पर तवज्जो देगा कि कुरान के जवाब में कुराने सानी (द्वतीय) लिखे। आप लोगों के इसलाम के प्रचार और प्रोपेगंडा, ही क़ौम के लिए ज़हर ए रूपोश हानि कारक है. कोई किसी मजबूरी ,लालच, सियासत से या मूर्ख वश इस्लाम कुबूल करता है तो इन बातों से दिल बाग़ बाग़ नहीं होता बल्कि फूट फूट कर रोता है कि आधुनिक मानव जाति को आप शैथिल्य कर रहे हैं. ए आर रहमान का इस्लामी दुन्या में बड़ा शोर है, मगर क्या मुसलमान खुद ए आर रहमान जैसे वन्दे मातरम वाले मुस्लमान बन सकते हैं। क्या दिलीप कुमार, वहीदा रहमान, आमिर खान शबाना आज़मी, अब्दुल कलाम जैसे मुसलमान इस्लाम को काबिले कुबूल होंगे? आप मुझे किताबें मत <span class="">सुझाइए, मैं आप को सुझा रहा हूँ, <span style="font-size:130%;color:#009900;">फितरत, सदाक़त और अपने ज़मीर को अपना रहनुमा बनाइए.</span></span></p><p align="center"><span class=""></span>"दिल के आईने में है तस्वीरे यार, जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली।" </p><p align="justify">और तस्वीरे यार है मेरी अपनी जेहनी बलूगत जिसका दीन है ईमान। हो सके तो मेरा ब्लॉग पढ़ते रहिए।</p><p align="justify"><span class=""></span>आपका खैर ख्वाह, </p><p align="justify">और तमान आलमे इंसानियत का बिही <span class="">ख्वाह,</span> </p><p align="justify">खास कर मजलूम मुसलामानों का, </p><br /><p align="right"><span style="font-size:180%;color:#660000;">'मोमिन' </span></p>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-64337396896956780212009-05-16T23:34:00.000-07:002009-05-22T20:03:40.117-07:00हर्फ़े ग़लत (क़ुरआन और हदीस)<div align="justify"><br /><span style="font-size:130%;">मुहम्मदी अल्लाह कहता है - - -<br /></span><span style="font-size:130%;color:#006600;">"जो व्यक्ति केवल मेरी सहमति के लिए और मुझ पर विश्वास जताने हेतु तथा मेरे दूत (मुहम्मद) के प्रमाणी करण के कारन मेरे रस्ते में जिहाद की उपलब्धियों के लिए निकलता है तो मेरे लिए निर्धारित है कि मैं उसको बदले में माल ए गनीमत (लूटे गए माल) से माला माल कर के वापस करूँ या जन्नत में दाखिल करूँ."<span style="font-size:100%;">मोहम्मद कहते</span>"अगर मुझे मेरी उम्मत (सम्प्रदाय) का ख़ौफ न होता <span style="font-size:100%;">(कि मेरे बाद उनका पथ प्रदर्शन कौन करेगा)</span> तो मैं मुजाहिदीन के किसी लश्कर के पीछे न रहता और यह पसंद करता कि मैं अल्लाह के <span class="">राह </span>में सम्लित होकर जीवित रहूँ, फिर शहीद हो जाऊं, फिर जीवित हो जाऊं, फिर शहीद हो जाऊं - - - "</span></div><br /><div align="justify"><span style="font-size:85%;">(हदीस बुखारी ३४)</span><br /><span style="font-size:130%;">मदरसों में शिक्षा का श्री गणेश इन हदीसों (मुहम्मद कथानात्मकों) से होती है, इससे हिन्दू ही नहीं वरन आम मुस्लमान भी अनजान होता है। मुहम्मदी अल्लाह की सहमति मार्ग क्या है ? इसे हर मुसलमान को <span style="color:#009900;"><strong>इस्लामदारी</strong></span> से नहीं, बल्कि <span style="color:#000099;"><strong>ईमानदारी</strong></span> से सोचना चाहिए. मुहम्मदी अल्लाह मुसलमानों को अपने हिदू भाइयों के साथ जेहाद की रज़ा क्यूं रखता है? इसका उचित जवाब न मिलने तक समस्त तर्क अनुचित हैं जो इस्लाम को शांति का द्योतक सिद्ध करते हैं. मुसलमानों! सौ बार इस हदीस को पढो, अगर एक बार में ये तुम्हारे पैगम्बर तुम्हारी समझ में न आएं कि ये किस मिट्टी के बने हुए इन्सान थे? खुद को जंग से इस लिए बचा रहे हैं कि इन को अपनी उम्मत का ख़याल है, तो क्या उम्मत के लिए अल्लाह पर भरोसा नहीं या मौत का क्या एतबार ? सब <span style="color:#006600;"><strong>मक्र</strong></span> की बातें हैं। मुहम्मद प्रारंभिक इस्लामी छ सात जंगों में शामिल रहे जिसे <span class="">गिज्वा </span>कहते हैं. हमेशा लश्कर के पीछे रहते जिसको स्वयं स्वीकारते है. तरकश से तीर निकाल निकाल कर जवानो को देते और कहते कि मार तुझ पर मेरे माँ बाप कुर्बान. जंगे ओहद में मिली शर्मनाक हार के बाद अंतिम पंक्ति में मुंह छिपाए खड़े थे, नियमानुसार जब अबू सुफ्यान ने तीन बार आवाज़ लगाईं थी कि अगर मुहम्मद जिंदा हों तो खुद को जंगी कैदी बनना मंज़ूर करें और सामने आएं । अल्लाह के झूठे रसूल, बन्दे के लिए भी झूठे मुजरिम बने। जान बचा कर अपनी उम्मत को अंधा बनाए हुए हैं </span></div><br /><br /><div align="center"><br /><span style="font-size:180%;color:#003300;">सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा</span> </div><br /><br /><div align="justify"><br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">"मुनाफिक (कपटचारी) जब नमाज़ को खड़े होते हैं तो बहुत काहिली के साथ खड़े होते हैं, सिर्फ आदमियों को दिखाने के लिए और अल्लाह का ज़िक्र भी नहीं करते, लटके हैं ईमान और कुर्फ्र के बीच. न इधर के, न उधर के.. जिन को अल्लाह गुमराही में डाल दे, ऐसे व्यक्ति के लिए कोई उपचार न पाओ गे."</span><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ पाँचवाँ पारा- आयात (144)</span><br /></div><div align="justify"><span style="font-size:130%;">दोषी<span class=""> तो मुहम्</span>मदी अल्लाह हुवा जो नमाजियों को गुमराह किए हुए <span class="">है,</span> शैतान की तरह और अकारण ही बन्दों के सर दोष रोपण कर रहा है कि वह कपटचारी और काहिल हैं।</span><br /></div><div align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">"जो लोग कुफ्र करते हैं अल्लाह के साथ और उसके रसूल के साथ वोह चाहते हैं फर्क रखें अल्लाह और उसके रसूल के दरम्यान, और कहते हैं हम बअजों पर तो ईमान लाते हैं और बअजों के मुनकिर हैं और चाहते हैं बैन बैन राह तजवीज़ करें, ऐसे लोग यकीनन काफिर हैं."</span><br /></div><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ छटवां पारा- (युहिब्बुल्लाह) आयात (१५१)</span></div><br /><div align="justify"><span style="font-size:130%;">जनाब! नमाज़ एक ऐसी बला है जिसमें नियत बांधते ही जेहन में भटकाव आ जाता है, अल्लाह का नाम लेकर दुन्या दारी में। इसकी गवाही एक ईमानदार मुसलमान दे सकता है. खुद मुहम्मद को तमाम कुरानी और हदीसी खुराफात नमाजों में ही सूझती <span class="">थीं.</span></span></div><br /><div align="justify"><span class=""></span><span style="font-size:130%;">" मदीने में अक्सरीयत जनता मुहम्मद को अन्दर से उस वक्त तक पसंद नहीं करती थी मगर चूँकि चारो तरफ इस्लामी हुकूमतें कायम हो चुकी थी और मदीने पर भी, इस लिए केंद्र विन्दु तो आवश्य बन चुके थे, फिर भी थे नापसंदीदा <span class="">ही </span>थे . कैसे बे शर्मी के साथ अल्लाह की तरह खुद को मनवा रहे हैं. आज उनका तरीका ही उनके चमचे आलिमान दीन अपनाए हुए हैं. मुसलमानों! बेदारी लाओ.*नूह, मूसा, ईसा जैसे मशहूर नबियों के सफ में शामिल करने के लिए मुहम्मद एहतेजाज(ptotest) करते हैं कि लोग उनको भी उनकी ही तरह क्यूँ तस्लीम नहीं करते. वोह उनको काफिर कहते हैं और उनका अल्लाह भी. मुहम्मद अपनी ज़िन्दगी में ही सोलह आना अपनी मनमानी देखना चाहते थे जो कि उमूमन ढोंगियों के मरने के बाद होता है. इन्हें कतई गवारा नहीं कि कोई इनकी राय में दख्ल अंदाज़ हो, अगर उनकी रसालत पर असर आती हो। लोगों को अपनी इन्फ्रादियत (व्यक्तित्व) भी अज़ीज़ होती है, इसलाम में निफ़ाक़ (फ़ुट) की खास वजह यही है। यह सिलसिला मुहम्मद के ज़माने से शुरू हुवा तो आज तक जारी </span><span style="font-size:130%;">है. इसी तरह उस वक़्त अल्लाह की हस्ती को तस्लीम करते हुए, मुहम्मद की ज़ात को एक मुक़ररर हद में रहने की बात पर हजरत बिफर जाते हैं और बमुश्किल तमाम बने हुए मुसलमानों को काफिर कहने लगते हैं."</span><br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">" आप से अहले किताब यह दरख्वास्त करते हैं कि आप उनके पास एक खास नविश्ता (लिखी हुई) किताब आसमान से माँगा दें, सो उन्हों ने मूसा से इस से भी बड़ी दरख्वास्त की थी और कहा था की हम को अल्लाह ताला को खुल्लम खुल्ला दिखला दो. उनकी गुस्ताखी के सबब उन पर कड़क बिजली आ पड़ी. फिर उन्हों ने गोशाला तजवीज़ किया था, इस के बाद बहुत से दलायल उनके पास पहुँच चुके थे.फिर हम ने उसे दर गुज़र कर दिया था, और मूसा को हम ने बहुत बड़ा रोब दिया था."</span><br /></div><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ छटवां पारा- आयात (153) </span></div><div align="justify"><span style="font-size:130%;">देखिए कि लोगो की जायज़ मांग पर अल्लाह के झूठे रसूल कैसे कैसे रंग बदलते हैं, जवाज़ में कहीं पर कोई मर्दानगी नज़र आती है? कोई ईमान दिखाई पड़ता है, सदाक़त की झलक नज़र आती है? उनकी इन्हीं अदाओं पर यह हिजड़े गाया करते हैं " मुस्तफ़ा जाने आलम पे लाखों सलाम।"" और हम ने उन लोगों से क़ौल क़रार लेने के वास्ते कोहे तूर को उठा कर उन के ऊपर मुअल्लक़ कर दिया था और हम ने उनको हुक्म दिया था कि दरवाज़े में आजिज़ी से दाखिल होना और हम ने उनको हुक्म दिया था कि योम हफ्ता के बारे में तजाउज़ न करना और हम ने उन से क़ौल ओ क़रार निहायत शदीद लिए. सो उनकी अहद शिकनी की वजह से और उनकी कुफ़्र की वजह से अहकाम इलाही के साथ और उनके क़त्ल करने की वजह से अम्बियाए नाहक और उन के इस मकूले की वजह से कि हमारे कुलूब महफूज़ बल्कि इन के कुफ़्र के सबब - - - " </span><br /></div><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (154-55)</span><br /></div><div align="justify"><span style="font-size:130%;">ये हैं तौरेत के वाकेआती कुछ टुकड़े जो कि अनपढ़ मुहम्मद के कान में पडे हुए हैं उसे वे वोह मुसन्निफ़ के तौर पर वोह भी अल्लाह बन कर कुरआन तरतीब दे रहे हैं और इस महा मूरख कालिदास के इशारे को उसके होशियार पंडित ओलिमा सदियों से मानी पहना रहे हैं। कहानी कहते कहते खुद मुहम्मदी अल्लाह भटक जाता है, उसको यह अलिमाने दीन अपनी पच्चड़ लगा कर रस्ते पर लाते हैं। जब तक आम मुसलमान इन मौलानाओं से भपूर नफरत नहीं करेंगे, इनका उद्धार होने वाला नहीं.*बात मूसा की चले तो ईसा को कैसे भूलें? कुरआन के बनी ये तो उम्मी की फितरत बन चुकी है, इस बात की गवाह खुद कुरआन है. मुहम्मदी अल्लाह कहता है - - -बात मूसा की चले तो ईसा को कैसे भूलेलें कुरआन के बानी ये तो उम्मी की फ़ितरत बन चुकी है, इस बात की गवाह खुद कुरआन है. मुहम्मदी अल्लाह कहता है - - </span><br /></div><div align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">-" मरियम पर उनके बड़ा भारी बोहतान धरने की वजह और उनके इस कहने की वजेह से हम ने मसीह ईसा इब्ने मरियम जो कि अल्लाह के रसूल हैं को क़त्ल कर दिया गाया. हालाँकि उन्हों ने न उनको क़त्ल किया, न उनको सूली पर चढाया, लेकिन उनको इश्तेबाह हो गया और लोग उनके बारे में इख्तेलाफ़ करते हैं, वोह गलत ख़याल में हैं, उनके पास इसकी कोई दलील नहीं है बजुज़ इसके कि तखमिनी बातों पर अमल करने के और उन्हों ने उनको यकीनी बात है कि क़त्ल नहीं किया बल्कि अल्लाह ताला ने उनको अपनी तरफ उठा लिया और अल्लाह ताला ज़बर दस्त हिकमत वाले हैं और कोई शख्स अहल किताब से नहीं रहता मगर वोह ईसा अलैहिस्सलाम की अपने मरने से पहले ज़रूर तस्दीक कर लेता है और क़यामत के रोज़ वोह इन पर गवाही देंगे."</span><br /></div><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात( 156-159)</span><br /></div><div align="justify"><span style="font-size:130%;">मूसा और ईसा अरब दुन्या की धार्मिक केंद्र के दो ऐसे विन्दु हैं जिनपर पूरी पश्चिम ईसाई और यहूदी आबादी केन्द्रित है ओल्ड टेस्टामेंट यानी तौरेत इन को मान्य है. इनकी आबादी दुन्या में सर्वाधिक है और दुन्या की कुल आबादी का आधे से ज्यादा है. कहा जा सकता है कि तौरेत दुन्या की सब से पुरानी रचना है जो मूसा कालीन नबियों और स्वयं मूसा द्वारा शुरू की गई और दाऊद के गीतों को अपने दामन में समेटे हुए ईसा काल तक पहुची, आदम और हव्वा की कहानी और दुन्या का वजूद छह सात हज़ार साल पहले इसमें ज़रूर कोरी कल्पना है जिसे खुद इस की तहरीर कंडम करत्ती है मगर बाद के वाकिए हैरत नाक सच बयान करते हैं.ऐसी कीमती दस्तावेज़ को मन्दर्जा बाला मुहम्मद की जेहालत, बल्कि दीवानगी के आलम में बाकी गई बकवास को लाना तौरेत की तौहीन है. जिसको अल्लाह खुद शक ओ शुबहा भरी आयत कहता हो उसको समझने की क्या ज़रुरत? जाहिल क़ौम इसे पढ़ती रहे और अपने मुर्दों को बख़श कर उनका भी आकबत ख़राब करती रहे.हम कहते हैं मुसलमान क्यूँ नहीं सोचता की उसके अल्लाह अगर हिकमत वाला है तो अपनी आयत साफ साफ क्यूँ अपने बन्दों को बतला सका, क्यूँ कारामद बातें नहीं बतलाएं? क्यूँ बार बार ईसा मूसा की और उनकी उम्मत की बक्वासें हम हिदुस्तानियों के कानों में भरे हुए है? वह फिर दोहरा रहा है की यहूदियों पर बहुत सी चीज़ें हराम करदीं अरे तेल लेने गए यहूदी, करदी होंगी उन पर हराम, हलाल, हमसे क्या लेना देना, क्यों हम इन बातों को दोहराए जा रहे है? यहूदी ज्यूज़ बन गए आसमान में छेद कर रहे हैं और हम <span class="">नक्काल </span>मुसलमान उनकी क़ब्रो की मरम्मत करके मुल्लाओं को पाल पोस रहे हैं हमारे लिए दो जून की रोटी मोहल है, ये अपनी माँ के खसम ओलिमा हम से कुरानी गलाज़त ढुलवा रहे हैं। पैदाइशी जाहिल अल्लाह एक बार फिर नूह को उठता है, पूरे कुरान में बार बार वह इन्हीं गिने चुने नामों को लेता है जो इस ने सुन रखे हैं, कहता है।</span><br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">"और मूसा से अल्लाह ने खास तौर पर कलाम फ़रमाया, उन सब को खुश खबरी देने वाले और खौफ सुनाने वाले पैगम्बर इस लिए बना कर भेजा था ताकि अल्लाह के सामने इन पैगम्बरों के बाद कोई उज्र बाकी न रहे और अल्लाह ताला पूरे ज़ोर वाले और बड़ी हिकमत वाले हैं।"</span> </div><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (166)</span></div><div align="justify"><span style="font-size:130%;">पूरे कुरआन में अल्लाह खुद को कम ज़र्फों की तरह ज़ोर वाला और हिकमत वाला बार बार दोहराता है। दर अस्ल यह मुहम्मद का घररा बोल रहा है धमकी से काम ले रहे हैं, जहाँ अमलन ज़ोर और ज़बर की ज़रुरत पड़ी है वहाँ साबित कर दिया है. मुहम्मद एक बद तरीन ज़ालिम इन्सान था जो जंगे बदर के अपने बचपन के बीस साथियों को तीन दिन तक मैदाने जंग में सड़ने दिया थ, फिर उनका नाम ले ले कर एक कुँए में ताने देते हुए फिक्वाया था. वहीँ जंगे ओहद में जंगी कैदी बना सफ़े आखिर में नाम पुकारे जाने पर खामोश मुंह छिपाए खडा रहा और मुर्दा बन कर बच गया. जो अल्लाह बना ज़ोर दिखला रहा है वह मक्र में भी ताक था। देखिए कि बे गैरत बना अल्लाह क्या कहता है - - -</span> </div><br /><div align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" लेकिन अल्लाह ताला बज़रिए इस कुरआन के जिस को आप के पास भेजा है और भेजा भी अपने अमली कमाल के साथ, शहादत दे रहे हैं फ़रिश्ते, तस्दीक कर रहे हैं और अल्लाह ताला की ही शहादत काफ़ी है. जो लोग मुनकिर हैं और खुदाई दीन के माने हैं, बड़ी दूर कि गुमराही में जा पड़े हैं।"</span><br /></div><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (167)</span><br /></div><div align="justify">वाह! <span style="color:#3333ff;"><span style="font-size:180%;">मुद्दआ ओनका है अपने आलम तक़रीर का</span></span>, <span style="font-size:130%;">अल्लाह का अमली कमाल भी कुछ ऐसा ही है कि जैसे मुहम्मद पर कुरआन नाज़िल हुई। मुहम्मद अपने दोनों हाथ रेहल बना कर हवा में फैलाए हुए थे कि कुरआन आसमान से अपने दोनों बाज़ुओं से उड़ती हुई आई और मुहम्मद के बाँहों में पनाह लेती हुई सीने में समा गई। तभी तो इसे मुस्लमान आसमानी किताब कहते हैं और सीने बसीने क़ायम रहने वाली भी। मदारी मुहम्मद डुगडुगी बजा कर मुसलमानों को हैरत ज़दा कर रहे हैं (गो कि यहूदियों के इसी मुताल्बे पर हज़ार उनके ताने के बाद भी मुहम्मद न दिखा सके). मुस्लमान मुहम्मद के पास आ गए इस लिए इन को पास की गुमराही में वह डाले हुए हैं. इन दिनों दूर की गुमराही मुहम्मद का तकिया कलाम बना हुवा है।</span></div><br /><div align="justify"><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;"><span class="">"ऐ</span> तमाम लोगो! यह तुहारे पास तुहारे रसूल अल्लाह कि तरफ से तशरीफ़ लाए हैं, सो तुम यकीन रखो तुम्हारे लिए बेहतर है।"</span></span></div><br /><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (173)</span></div><br /><div align="justify"><span style="font-size:130%;">मुहम्मद लोगों को फुसला रहे हैं, लोग हर दौर में काइयाँ हुवा करत्ते हैं, वह अपना फ़ायदा देख कर रिसालत का फायदा उठते है. कुर्ब जवार में वह हर एक पर पैनी नज़र रखते है, जहाँ किसी में खुद सरी देखते हैं, ज़िन्दा उठवा लेते हैं. मंज़रे आम पर बांध कर इबरत नाक सज़ाएं देते हैं. जिस से अमन ओ अमान का ख़तरा होता है उसको एक मुक़रार मुद्दत तक झेलते है. ओलिमा हर बात खूब जानते हैं मगर हर मुहम्मदी ऐबों की पर्दा पोशी करते हैं, इसी में उनकी खैर है. मुसलमानों में एक अवामी इन्कलाब आना बेहद ज़रूरी है।</span></div><br /><div align="justify"><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;"><span class="">"मसीह</span> इब्ने मरियम तो और कुछ भी नहीं, अलबत्ता अल्लाह के रसूल हैं. मसीह हरगिज़ अल्लाह के बन्दे बन्ने से आर नहीं करेंगे और न मुक़र्रिब फ़रिश्ते।"</span></span></div><br /><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (174)</span></div><br /><div align="justify"><span style="font-size:130%;">मुहम्मद फितरत से एक लड़ाका, शर्री और शिद्दत पसंद इन्सान थे. दख्ल अंदाजी उनकी खू में थी. तमाम आलम पर छाई ईसाइयत को छेद कर एक बड़ी ताकत से बैर बाधना उनकी सिर्फ हिमाकत कही जा सकती है जिसका नतीजा दुन्या की करोरों जानें अपने वजूद को गँवा कर अदा कर चुकी हैं और करती रहेंगी. </span></div><br /><br /><div align="justify"><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;"><span class="">"अगर</span> कोई शख्स मर जाए जिस की कोई औलाद न हो, जिस की बहन हो तो उसको उसके तुर्के का आधा मिलेगा और वोह शख्स उसका वारिस होगा और अगर उसकी औलाद न हों और अगर दो हों तो उनको उसके तुर्के का दो तिहाई मलेगा और अगर भाई बहन हों मर्द, औरत तो एक मर्द को दो औरतों के हिस्से के बराबर. अल्लाह ताला इस लिए बयान करते हैं कि तुम गुमराही में मत पडो और अल्लाह ताला हर चीज़ को जानने वाले हैं।"</span></span></div><br /><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (177)</span></div><br /><div align="justify"><span style="color:#6600cc;"><span style="font-size:180%;">यह है कुरानी अल्लाह की हिकमती क़ानून जिस पर बड़े बड़े कानून दान अपने सरों को आपस में लड़ा लड़ा कर लहू लुहान कर सकते हैं और अलिमान दीन दूर खड़े तमाशा देखा करें।</span></span> </div><div align="right"><span style="font-size:180%;color:#660000;">'मोमिन'<br /></span></div><div align="justify"></div><br /><div align="justify"></div><br /><div align="justify"></div>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-68508161541068809662009-05-10T07:08:00.000-07:002009-05-11T20:58:03.903-07:00अलबेदार (क़ुरआन का सच)<strong></strong><br /><br /><p align="center"><span style="font-size:180%;color:#003300;">मुसलमानों को अँधेरे में रखने वाले इस्लामी विद्वान, मुस्लिम बुद्धि जीवी और कौमी रहनुमा, समय आ गया है कि अब जवाब दें- - -</span></p><span style="font-size:180%;color:#003300;"><br /><br /><p align="justify"><br /></span><span style="color:#006600;">कि लाखों, करोरों, अरबों बल्कि उस से भी कहीं अधिक बरसों से इस ब्रह्मांड का रचना कार अल्लाह क्या चौदह सौ साल पहले केवल <strong>तेईस साल चार महीने</strong> (मोहम्मद का पैगम्बरी काल) के लिए अरबी जुबान में बोला था? वह भी मुहम्मद से सीधे नहीं, किसी तथा कथित दूत के माध्यम से, वह भी बाआवाज़ बुलंद नहीं काना-फूसी कर के ? जनता कहती रही कि <em>जिब्रील</em> आते हैं तो सब को दिखाई क्यूँ नहीं पड़ते? जो कि उसकी उचित मांग थी और मोहम्मद बहाने बनाते रहे। क्या उसके बाद मुहम्मदी अल्लाह को साँप सूँघ गया कि स्वयम्भू अल्लाह के रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई और <em>जिब्रील अलैहिस्सलाम</em> मृत्यु लोक को सिधार गए ? उस महान रचना कार के सारे काम तो बदस्तूर चल रहे हैं, मगर झूठे अल्लाह और उसके स्वयम्भू रसूल के छल में आ जाने वाले लोगों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, मुस्लमान वहीँ है जहाँ सदियों पहले था, उसके हम रकाब यहूदी, ईसाई और दीगर कौमें आज हम मुसलमानों को सदियों पीछे अतीत के अंधेरों में छोड़ कर प्रकाश मय संसार में बढ़ गए हैं. हम मोहम्मद की गढ़ी हुई जन्नत के मिथ्य में ही नमाजों के लिए वजू, रुकू और सजदे में विपत्ति ग्रस्त है. मुहम्मदी अल्लाह उन के बाद क्यूँ मुसलमानों में किसी से वार्तालाप नहीं कर रहा है? जो वार्ता उसके नाम से की गई है उस में कितना दम है? ये सवाल तो आगे आएगा जिसका वाजिब उत्तर इन बदमआश आलिमो को देना होगा....<br />क़ुरआन का पोस्ट मार्टम खुली आँख से देखें "हर्फ़ ए ग़लत" का सिलसिला जारी हो गया है. आप जागें, मुस्लिम से मोमिन हो जाएँ और ईमान की बात करें। अगर ज़मीर रखते हैं तो सदाक़त अर्थात सत्य को ज़रूर समझेंगे और अगर इसलाम की कूढ़ मग्ज़ी ही ज़ेह्न में समाई हुई है तो जाने दीजिए अपनी नस्लों को तालिबानी जहन्नम में।</span><br /></p><p align="right"><span style="font-size:180%;color:#006600;">'मोमिन' </span></p><p align="right"></p><br /><p align="center"><br /><span style="color:#660000;"><span style="font-size:180%;">सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा (तीसरी किस्त)</span></span></p><br /><br /><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" क्या तुम लोग इस का इरादा रखते हो कि ऐसे लोगों को हिदायत करो जिस को अल्लाह ने गुमराही में डाल रक्खा है और जिस को अल्लाह ताला गुमराही में डाल दे उसके लिए कोई सबील (उपाय) नहीं."<br /></span><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (84)</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;">गोया मुहम्मदी अल्लाह शैतानी काम भी करता है, अपने बन्दों को गुमराह करता है. मुहम्माद परले दर्जे के <span class="">उम्मी(</span>निरक्षर) ही नहीं अपने अल्लाह के नादाँ दोस्त भी हैं, जो तारीफ में उसको शैतान तक दर्जा देते हैं। उनसे ज्यादा उनकी उम्मत(अनुयायी) जो उनकी बातों को मुहाविरा बना कर दोहराती हो कि</span> <span style="font-size:180%;color:#990000;">" अल्लाह जिसको गुमराह करे, उसको कौन राह पर ला सकता है"? </span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" वह इस तमन्ना में हैं कि जैसे वोह काफ़िर हैं, वैसे तुम भी काफ़िर बन जाओ, जिस से तुम और वोह सब एक तरह के हो जाओ। सो इन में से किसी को दोस्त मत बनाना, जब तक कि अल्लाह की राह में हिजरत (स्वदेश त्याग) न करें, और अगर वोह रू गरदनी (इंकार) करें तो <span style="font-size:180%;"><em>उन को पकडो और क़त्ल कर दो</em> </span>और न किसी को अपना दोस्त बनाओ न मददगार"</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (89)</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;">कितना जालिम प्रकृत था अल्लाह का वह स्वयंभु रसूल? बड़े शर्म की बात है कि आज हम उसकी अनुयायी बने बैठे हैं। सोचें कि एक शख्स रोज़ी कि तलाश में घर से निकला है, उसके छोटे छोटे बाल बच्चे और बूढे माँ बाप उसके हाथ में लटकती रिजक (भोज्य सामग्री) की पोटली का इन्तेज़ार कर रहे हैं और इसको मुहम्मद के दीवाने जहाँ पाते हैं उसे क़त्ल कर देते हैं? एक आम और निश पक्ष की ज़िन्दगी किस क़दर मुहाल कर दिया था मुहम्मद की दीवानगी ने। बेशर्म और ज़मीर फरोश ओलिमा उल्टी कलमें घिस घिस कर उस मुज्रिमे इंसानियत को मुह्सिने इंसानियत (मानवता- मित्र) बनाए हुए हैं। यह कुरान उसके बेरहमाना कारगुजारियों का गवाह है और शैतान ओलिमा इसे मुसलमानों को उल्टा पढा रहे हैं. हो सकता है कुछ धर्म इंसानों को आपस में प्यार मुहब्बत से रहना सिखलाते हों मगर उसमें इसलाम हरगिज़ नहीं हो सकता. मुहम्मद तो उन लोगों को भी क़त्ल कर देने का हुक्म देते हैं जो अपने मुस्लमान और काफिर दोनों रिश्तेदारों को निभाना चाहे. आज तमाम दुन्या के हर मुल्क और हर क़ौम, यहाँ तक की मुस्लमान भी इस्लामी दहशत गर्दी से परेशान हैं. इंसानियत की तालीम से अनजान, कुरानी <span class="">शिक्षा </span>से भरपूर अल्कएदा और तालिबानी संस्थाएं के नव जवान अल्लाह की राह में तमाम मानव मूल्यों पैरों तले रौंद सकते हैं, <span class="">इंसान के रचना कालिक उत्थान को </span>तह ओ बाला कर सकते हैं। सदियों से फली फूली सभ्यता को कुचल सकते हैं. हजारों सालों प्रयत्नों से इन्सान ने जो तरक्की की मीनार चुनी है, उसे वोह पल झपकते मिस्मार कर सकते हैं। इनके लिए इस ज़मीन पर खोने के लिए कुछ भी नहीं है एक कूडे दान सर के सिवा, जिसके बदले में ऊपर मुंगेरी लाल का स्वर्ग है। इनके लिए यहाँ पाने के लिए भी कुछ नहीं है सिवाए इस के की हर सर इनके हानि कारक इसलाम को कुबूल करके और इनके अल्लाह और उसके रसूल मुहम्मद के आगे सजदे में नमाज़ के वास्ते झुक जाए. इसके बदले में भी इनको ऊपर जन्नतुल फिरदौस धरी हुई है, पुर अमन चमन में तिनके तिनके से सिरजे हुए आशियाने को इन का तूफ़ान पल भर में सर्वनाश कर देता है। क़ुरआन कहता है - - - </span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" बाजे ऐसे भी तुम को ज़रूर मिलेगे जो चाहते हैं तुम से भी बे ख़तर होकर रहें और अपने क़ौम से भी बे ख़तर होकर रहें. जब इन को कभी शरारत की तरफ मुतवज्जो किया जाता है तो इस में गिर जात्ते हैं यह लोग अगर तुम से कनारा <span class="">कश </span>न हों और न तुम से सलामत रवि रखें और न अपने हाथ को रोकें तो ऐसे लोगों को पकडो और क़त्ल कर दो जहाँ पाओ ।"</span><span style="font-size:85%;">उरः निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (91)</span></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;">मुहम्मद ये उन लोगों को क़त्ल कर देने का हुक्म दे रहे हैं जो आज सैकुलर जाने जाते हैं और मुसलमानों के लिए पनाहे अमां बने हुए हैं। आज़ादी के पहले यह भी मुसलमानों के लिए काफ़िर ओ मुशरिक जैसे ही थे, मगर इब्नुल वक़्त (समय जन्मित कपूत) ओलिमा आज इनकी तारीफ़ में लगे हुए हैं। वैसे भी नज़रियात बदल जाते हैं, मज़हब बदल जाते हैं मगर खून के रिश्ते कभी नहीं बदलते. मुहम्मदी इसलाम इन्सान से अलौकिक काम कराता है, इसी लिए अंततः सर्व निन्दित है। मैं एक बार फिर आप का ध्यान आकर्षित कराना चाहता हूँ कि इस ब्रह्माण्ड का निदेशक, वोह महान शक्ति अगर कोई है भी तो क्या उसकी बातें ऐसी टुच्ची किस्म की हो सकती हैं जो क़ुरआन कहता है. किसी बस्ती के ना इंसाफ मुख्या की तरह, या कभी किसी कस्बे के बे ईमान बनिए जैसा. कभी गाँव के लाल बुझक्कड़ की तरह. अल्लाह भी कहीं ज़नानो कि तरह बैठ कर पुत्राओ-भत्राओ करता है? कुन <span class="">फ़यकून (हो जा ,होगया की कुदरत रखने वाला अल्लाह) </span>की ताक़त रखता है तो पंचायती बातें क्यूँ? आखिर मुसलमानों को समझ क्यों नहीं आती, उस से पहले उसे हिम्मत क्यों नहीं आती? </span></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" और किसी मोमिन को शान नहीं की किसी मोमिन को क़त्ल करे और किसी मोमिन को गलती से क़त्ल कर दे तो उसके ऊपर एक मुस्लमान गुलाम या लौंडी को आज़ाद करना है और खून बहा है, जो उसके खानदान के हवाले से दीजिए, मगर ये की वोह लोग मुआफ कर दें। (मोमिन से मुहम्मद का मतलब है मुसलिम)" </span></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (92)</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">"और जो किसी मुस्लमान का क़सदन क़त्ल कर डाले तो इस की सजा जहन्नम है जो हमेशा हमेशा को इस में रहना।"</span><br /></p><p align="justify">सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (93)</p><p align="justify"><span style="font-size:130%;">बड़ी ताकीद है कि मोमिन मोमिन को क़त्ल न करे, इस्लामी तारीख जंगों से भारी पड़ी हैं और ज़्यादा तर जंगें आपस में मुसलमनो की इस्लामी मुल्को और हुक्मरानों के दरमियाँ होती हैं। आज ईरान, ईराक, अफगानिस्तान, और पाकिस्तान में खाना जंगी मुसमानों की मुसलमानों के साथ होती है। बेनजीर और मुजीबुर रहमान जैसा सिलसिला रुकने का नहीं, मज़े की बात कि इनको मारने वाले शहीद और जन्नत रसीदा होते हैं, मरने वाले चाहे भले न होते हों। मुस्लमान आपस में एक दूसरे से हमदर्दी रखते हों या नहीं मगर इस जज्बे का नाजायज़ फायदा उठा कर एक दूसरे को चूना ज़रूर लगते हैं.</span></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" अल्लाह ताला ने इन लोगों का दर्जा बहुत ज़्यादा बनाया है जो अपने मालों और जानों से जेहाद करते हैं, बनिसबत घर में बैठने वालों के, बड़ा <span class="">बडा बदला</span> दिया है, यानी बहुत से दर्जे जो अल्लाह ताला की तरफ़ से मिलेंगे."</span></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (95)</span></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;">मुहम्मद ने जेहाद का आगाज़ भर सोचा था, अंजाम नहीं, अंजाम तक पहुँचने के लिए उनके पास सम्राट अशोक जैसा दृष्टकोण ही नहीं था न ही होने वाले रिश्ते दार नौ शेरवाने आदिल का दिल था. उन्होंने अपनी विरासत में क़ुरआन की ज़हरीली आयतें छोडीं, तेज़ तर तलवार और माले गनीमत के धनी खुलफा, उमरा, सुलतान, और खुदा वंद बादशाह, साथ साथ जेहनी गुलाम जाहिल उम्मत की भीड़।</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" मुहम्मदी अल्लाह कहता है जब ऐसे लोगों की जान फ़रिश्ते कब्ज़ करते हैं जिन्हों ने खुद को गुनाह गारी में डाल रक्खा था तो वोह कहते हैं कि तुम किस काम में थे? वोह जवाब देते हैं कि हम ज़मीन पर महज़ आधीन थे। वोह कहते हैं कि क्या अल्लाह की ज़मीन विशाल न थी? कि तुम को तर्क वतन करके वहाँ चले जाना चाहिए था? सो इन का ठिकाना जहन्नम है।"</span> </p><p align="justify"><span style="font-size:130%;">मात्र भूमि और स्वदेश प्रेम करने वाले कुरआनी आयातों पर गौर करें .<br />अल्लाह अपनी नमाजें किसी हालात में मुआफ नहीं करता, चाहे बीमारी ओ लाचारी हो या फिर मैदाने जंग। मैदान जंग में आधे लोग साफ बंद हो जाएँ और बाकी नमाज़ की सफ में खड़े हो जाएँ. नमाज़ और रोजा अल्लाह की बे रहम ज़मींदार की तरह माल गुजारी है. बहुत देर तक और बहुत दूर तक अल्लाह अपने घिसे पिटे कबाडी जुमलो की खोंचा फरोशी करता है, फिर आ जाता है अपनी मुर्ग की टांग पर- - -</span></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">"जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की पूरी आज्ञाकारी करेगा, अल्लाह ताला उसको ऐसी जन्नतों में दाखिल करेगा जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इन में रहेगे. यह बड़ी कामयाबी है." </span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ पाँचवाँ पारा- आयात (96-122)</span><br /></p><p align="justify">फिर एक बार <span style="font-size:130%;">कूढ़ मगजों</span> के लिए मुहम्मदी अल्लाह कहता है - - </p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" और जो शख्स कोई नेक काम करेगा ख्वाह वोह मर्द हो कि औरत बशरते कि वोह मोमिन हो, सो ऐसे लोग जन्नत में दाखिल होंगे और इन पर ज़रा भी ज़ुल्म न होगा।"</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (124)</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;">अल्लाह न जालिम है न रहीम करोरों साल से दुन्या क़ायम है ईमान दारी के साथ उसकी कोई खबर नहीं है, अफवाह, कल्पना, और जज़्बात की बात बे बुन्याद होती हैं। खुद मुहम्मद ज़ालिम तबाअ थे और अपने हिसाब से उसका तसव्वुर करते हैं। आम मुसलमानों में जेहनी शऊर बेदार करने के लिए खास अहले होश और बुद्धि जीवियों को आगे आने की ज़रुरत है.</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" यह तो कभी न हो सकेगा की सब बीवियों में बराबरी रखो, तुमरा कितना भी दिल चाहे."</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (129) </span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;"><span class="">यह</span> कुरानी आयत है अपनी ही पहली आयात के मुकाबले में जिसमें अल्लाह कहता है दो दो तीन तीन चार चार बीवियां कर सकते हो मगर मसावी सुलूक और हुकूक की शर्त है, और अब अपनी बात काट रहा है, कुरानी कठमुल्ले मुहम्मदी अल्लाह की इस कमजोरी का फायदा यूँ उठाते है की अल्लाह ये भी तो कहता है।</span> </p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" ऐ ईमान वालो! इंसाफ पर खूब कायम रहने वाले और अल्लाह के लिए गवाही देने वाले रहो."</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (135)</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;">मुसलमानों सोचो तुम्हारा अल्लाह इतना कमज़ोर की बन्दों की गवाही चाहता है? अगर तुम पीछे हटे तो वोह मुक़दमा हार जाएगा। उस झूठे और कमज़ोर अल्लाह को हार जाने दो। ताक़त वर जीती जागती क़ुदरत तुम्हारा इन्तेज़ार अपनी सदाक़त की बाहें फैलाए हुए कर रही है।</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">." जब एहकामे इलाही के साथ इस्तेह्ज़ा (मज़ाक) होता हुवा सुनो तो उन लोगों के पास मत बैठो - - - इस हालत में तुम भी उन जैसे हो जाओगे.</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;color:#000000;">"सूरह निसाँअ 4 पाँचवाँ पारा- आयात (140)</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;"><span class="">मुहम्मद</span> की उम्मियत में बाला की पुख्तगी थी, अपनी जेहालत पर ही उनका ईमान था जिसमें वह आज तक कामयाब हैं। जब तक जेहालत कायम रहेगी मुहम्मदी इसलाम कायम रहेगा. इस आयात में यही हिदायत है कि तालीमी रौशनी में इस्लामी जेहालत का मज़ाक बनेगा. मुसलमानों को हिदायत दी जाती है की उस में बैठो ही नहीं. वैसे भी मुल्लाजी के लिए दुम दबा कर भागने के सिवा कोई रास्ता नहीं रह जाता जब <span style="color:#990000;">"ज़मीन नारंगी की तरह गोल और घूमती हुई दिखती है, रोटी की तरह चिपटी और कायम नहीं है."</span> जैसी बात चलती है - - - एहकामे इलाही में ज़्यादा तर परिहास के सिवा है क्या? इस में एक से एक हिमाक़तें दरपेश आती हैं। इन के लिए जेहनी मैदान की बारीकियों में जेहद की जमा जेहाद के काबिल तो कहीं पर क़दम ज़माने की जगह मिलती नहीं आप की उम्मत को.अक्सर अहले रीश नमाज़ के बहाने खिसक लेते हैं जब देखते हैं कि इल्मी, अकली, या फितरी बहस होने लगी.</span></p><br /><br /><p align="justify"><br /></p>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-42328303920752963032009-05-08T06:28:00.000-07:002009-05-08T21:46:45.937-07:00हर्फ़-ए-ग़लत (क़ुरआन की जन्गी हक़ीक़त)(पिछले मज़मून का हिन्दी भाषांतरण का प्रयत्न)<br /><br /><div align="center"><br /><span style="color:#003300;"><span style="font-size:180%;">ईमान और ईमानदारी की बात</span></span> </div><br /><div align="justify"><br /><span style="font-size:130%;color:#006600;">"प्रारम्भ करता हूँ मैं अपनी अंतर आत्मा की आवाज़ से, अपने बौधिक स्तर की ऊंचाइयों को छू कर, नवीनतम ज्ञान और शिक्षा को साक्षी बना कर एवं प्रकृतिक सत्य के प्रकाश में कि जो कुछ मेरी लेखनी में होगा वोह सत्य होगा, मिथ्य, पक्षपात एवं राजनीति से प्रेरित न होगा. मेरा अभियान मानव समाज का उद्धार करना है, किसी से बैर न किसी से लगाव, किसी से डर न किसी का अनुचित सम्मान. मैं एक मोमिन हूँ जो औचित्य को लौकिक आधार पर नापता, तौलता और मानता <span class="">है"</span> .जैसा कि ग़ालिब कहते हैं - -</span> -</div><br /><div align="center"><br /><span style="font-size:180%;color:#006600;">वफ़ा दारी बशर्ते उस्तवारी अस्ल ए ईमाँ है. </span></div><span style="font-size:180%;color:#006600;"><br /><div align="justify"><br /></span><span style="color:#006600;"><span style="font-size:130%;">मुस्लिम वस्तुतः इसलाम को स्वीकार किए हुए होता है, चाहे वह बात उचित हो अथवा अनुचित. इस्लाम इस धरती पर अवैध व्यवस्था है जो कोई ना जायज़ मज़हब तो हो सकता है, धर्म नहीं. "माले गनीमत" के घृणित जीविका साधन ने इसे नई दिशा दे दी है जो की धीरे धीरे एक विराट संसाधन बन कर जंगी ब्यवसाय बन गया है. क़त्ताल, जज़्या और मुस्लमान बन जाने की अवस्था में ज़कात की भरपाई, जनता के साथ अत्याचार, दमन और अन्याय के अतरिक्त इसलाम ने दुन्या और मानवता को और कुछ नहीं दिया. इसलाम ने दुन्या पर जो कहर ढाया है, और जो मानव रक्त पिया है, कदाचित किसी दूसरे संगठन ने नहीं. अतीत को ढका नहीं जा सकता. कुरआन स्वयंभु रसूल मुहम्मद की गढ़ी हुई बकवास है जिस को किताब का रूप देकर ईश वाणी बना दिया गया है. यह किताब घृणा, हिंसा, द्वेष, मारकाट और अन्याय सिखलाती है, इंसानों में आपस में फूट पैदा करती है, जंग जंग और जंग, मानव समाज को तो शांति पूर्वक रहने ही नहीं देती. नए मानव मूल्य हैं कि इसको झेल कर भी मुसलमानों को राय दे रहे हैं कि वोह स्वयं अपने हाथों से इए कुरानी पन्नों को फाड़ कर माटी में मिला दें, यह उनकी नेक सलाह है, वरना वह चाहें तो खुद मुसलमानों को इन के बुरे परिणाम तक पहुंचा सकते हैं. मुसलमानों ने "कलिमा ए नामुराद" को पढ़ कर सिर्फ़ अपना परलोक संवारा है(दर अस्ल ये आत्म घात है), दुन्या को दिया क्या है? दुन्या में जो कुछ है इन्हीं भौतिक वादियों पश्चिमी देशों देन है और तमाम साइंस दानों के ज्ञान की बरकतें हैं, जिनको यह परलोक के सौदागर धर्म गुरु बड़ी निर्लज्जता के साथ भोग रहे हैं.<br />अब मैं सोई हुई क़ौम की खस्ता हाली के कारणों पर आता हूँ. इसलाम अरबों की दयनीय आर्थिक दुरदशा में अपने दुर्भाग्य के साथ अस्तित्व में आया था. डाका ज़नी, और लूट पाट अभी तक मानव इतिहास में दण्डनीय अपराध हुआ करता था, इसे " माल ए गनीमत" (अर्थात वोह धन जो उचित तो न हो मगर अनुचित भी न हो) कह कर मुहम्मद ने इसे जायज़ करार दे दिया. मज़हब के नाम पर बेकारों को जंगी लूट का सरल साधन मिल गया, <em>बनू नसीर और खैबर</em> जैसी हजारों बस्तियां इस नई बीमारी से तबाह ओ बर्बाद हुईं. दूसरी ओर <em>" इस्लामी इल्म ए जेहालत"</em> अर्थात धार्मिक विद्वता का ढिंढोरा मुस्लिम शाशकों ने पिटवाया जिस से एक नया जत्था ओलिमा का पैदा हुवा जो की जंगी विषमताओं से बचना चाहता था, वोह इस में लग गया. यह साक्षर मगर कायर गिरोह <em>लेखन शक्ति</em> दिखलाने लगा और वह ला खैरा और निरक्षर गिरोह <em>तलवार शक्ति</em>. फिर क्या था मिथ्य, अनर्गल, निरर्थक, अतिशियोक्ति, और छल कपट के पुल बंधने लगे, युद्घ में फ़रिश्ते लड़ने लगे, अल्लाह उसमें हस्तक्षेप करने लगा और जिब्रील अलैहिस सलाम मुहम्मद के दुम छल्ले बन गए. सैकडों साल से इस इस्लामी जड़ता में बौद्धिकता एवं तत्व ज्ञान भरे जा रहे हैं. मुसलमानों के सबसे बड़े दोषी यह धूर्त ओलिमा हैं. यह नकारात्मक को धनात्मक में बदलने में दक्ष होते हैं. अज्ञानी, जड़,मूर्ख और जाहिल को उम्मी लिख कर उसकी अदूर दर्शीयता में, दूर अन्देशियाँ भरते रहते हैं. हमेशा ही इनके कपट और छल का बोलबाला रहा है, कई बार इनका सर भी विषैले नागों की तरह कुचला गया है और चीन की तरह ही इन पर प्रतिबंध भी लगाया गया मगर यह पापी होते हैं बड़े सख्त जान. आज इन का उत्थान शिखर पर है. भारत का प्रजातांत्रिक विधान इनके फलने फूलने के लिए बहुत अनुकूल है. इनको कोई चिंता नहीं मुसलमानों की दुर्दशा की, इनकी बला से हुवा करे, इनको तो मुसलमानों पर प्रभुत्व चाहिए और माल ए मुफ़्त के साथ साथ सम्मान. इनका एक संगठित गिरोह बना हुवा है जो मुस्लिम समाज को चारो तरफ से जकडे हुए है. बहुत बिडला कोई होगा जो इनके जाल से बचा हुवा होगा. जेहाद की लूट ख़त्म हो चुकी है मगर दर पर्दा मदरसे की शिक्षा मुसलमानों को प्रभावित किए हुए है.<br />यह <strong>धूर्त ओलिमा</strong> भारत की राजनीति में चिल्लाते फिरते हैं की इसलाम शांति का झंडा बरदार है. कोई इन से पूछे की मदरसे में पढाई जाने वाली कुरआन और हदीस क्या कोई और हैं या वही जिनमें जेहाद और नफरत की सडांध आती है? माले गनीमत जो कभी गैर मुस्लिमों से बज़ोर ए तलवार मुस्लमान वसूल किया करते थे, अब वह कम हर आलिम मुसलमानों से जज़्या किसी न किसी रूप में ले रहा है. इस से मुसलमानों का दोहरा नुकसान हो रहा है कि इसके लिए उनको आधुनिक शिक्षा से वंचित रखा जा रहा है, दूसरा आर्थिक नुकसान और कभी कभी जानी नुकसान भी.<br />मुसलमानों की भलाई इसी में है की सरकार इस मुस्लिम इशू को ही बंद करे, बहैसियत मुस्लमान कहीं पर कोई रिआयत न हो. अल्प संख्यक का विचार ही कच्चा है, मुसलमानों को वर्ग विशेष कहना बंद हो. सरकार ने जो स्कूल कालेज खोल रखे हैं, वहां कोई भेद भाव नहीं है, हर बच्चा वहां शिक्षा प्राप्त कर सकता है. जो इसको छोड़ कर मदरसा जाता है इसकी ज़िम्मेदारी सरकार क्यूं ले? बल्कि ऐसे लोगों पर जांच की द्रष्टि रहे जो इन मदरसों में पढ़ कर तालिबानी राहों पर जाने के लिए अमादा किए जाते हैं. मैं आगाह करता हूँ कि तुम्हारा मज़हब इसलाम पूर्णतया गलत है जिस पर सारा ज़माना लानत भेज रहा है. तुम्हारे यह आलिम तुम्हारे दोषी हैं. इनको समझने प्रयत्न करो. अभी सवेरा है, जग जाओ, जागना बहुत आसान है, बस दिल की आँखें खोलना है। तुम्हें इसलाम छोड़ कर खुदा न खास्ता हिन्दू नहीं बनना है, न क्रिशचन, मामूली से फर्क के साथ एक ठोस मोमिन बनाना है. तुम्हारा नाम, तुम्हारा कल्चर, तुम्हारी सभ्यता, रस्म ओ रिवाज, भाषा कुछ भी नहीं बदलेगा, बस मुक्ति पाओगे इस झूठे अल्लाह से जिसको मुहम्मद ने चौदह सौ साल पहले गढा था। नजात पा जाओगे उस स्वयम्भू रसूल से और उसकी जेहालत भरे एलान कुरआन और हदीस से जो तुम्हारे ऊपर लगे हुए दाग है। मगर हाँ मोमिन बनना भी आसान नहीं, मोमिन की परिभाषा समझना होगा. </span></span></div><br /><div align="right"><span style="font-size:180%;color:#660000;">'मोमिन'</span> </div><br /><div align="right"></div><div align="left"></div><div align="center"><br /><span style="font-size:180%;color:#660000;">सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा</span> </div><br /><div align="center">(दूसरी किस्त)</div><br /><div align="justify"><br /><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;"><span style="font-size:100%;"><span style="color:#000000;">अल्लाह नशे की हालत में नमाज़ के पास भटकने से भी मना करता है। मुसलमानों को जनाबत(शौच) इस्तेंजा(लिंग शोधन ) मुबाश्रत (सम्भोग) और तैममुम के तालमेल और तरीके समझाता है इस सिलसिले में यहूदियों की गुमराहियों से आगाह करता है कि वह तुम को भी अपना जैसा बनाना चाहते हैं. अल्लाह समझाता है की वह अल्फाज़ को तोड़ मरोड़ कर तुम्हारे साथ गुफ्तुगू में कज अदाई करते हैं. यहाँ पर सवाल उठता है कि न यहूदी हमारे संगी साथी हैं और न उनकी भाषा का हम से कोई लेना देना, इस पराई पंचायत में हम भारतीय लोगों को क्यूँ सदियों से घसीटा जा रहा है, क्यूँ ऐसे क़ुरआन का रटंत हम मुसलसल किए जा रहे है। फ़र्द कल माज़ी ए बईद में था कि हाफिज़ क़ुरआन बन कर ज़रीया मुआश दरसे क़ुरआन को बनता था, अब जब रौशनी नए इल्म की आ चुकी है तो ऐसे इल्म को तर्क करना और इसकी मुखालफ़त करना सच्चा ईमान बनता है। देखिए बे ईमान अल्लाह कहता है - - </span></span></span></span></div><br /><div align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">-" उन को अल्लाह ने उन के कुफ्र के सबब अपनी रहमत से दूर फेंक दिया है। ए वह लोगो! जो किताब दी गए हो, तुम उस किताब पर ईमान लाओ जिस को हम ने नाज़िल फ़रमाया है, ऐसी हालत पर वोह सच बतलाती है जो तुम्हारे पास है, इस से पहले की हम चेहरों को बिलकुल मिटा डालें और उनको उनकी उलटी जानिब की तरफ बना दें या उन पर ऐसी लानत करें जैसी लानत उन हफ़्ता वालों पर की थी। अल्लाह जिस को चाहे मुक़द्दस बना दे, इस पर धागे के बराबर भी ज़ुल्म न होगा - - - वोह बुत और शैतान को मानते हैं। वोह लोग कुफ्फार के निस्बत कहते हैं की ये लोग बनिस्बत मुसलमानों के ज़्यादः राहे रास्त पर हैं - - - और दोज़ख में आतिश सोज़ाँ काफी है,"</span></div><div align="justify"><span style="font-size:85%;"><span style="color:#000000;">सूरह</span> निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (43-55)</span> </div><br /><div align="justify">उम्मी मुहम्मद अपने क़ुरआन और हदीस में बवजेह उम्मियत हज़ार झूट गढा हो मगर उसमे उनके खिलाफ़ सदाक़त दर पर्दा दबे पाँव रूपोश बैठी नज़र आ ही जाती है. बुत को मानने वाले तो काफ़िर थे ही, बाकी उस वक़्त नुमायाँ कौमें हुवा करती थीं जो मशसूरे वक़्त थीं, ये शैतान के मानने वाले गालिबन नास्तिक हुवा करते थे? बडी ही जेहनी बलूगत थी जब इसलाम नाजिल हुवा, इसने तमाम ज़र खेजियाँ गारत करदीं. ये नास्तिक हमेशा गैर जानिब दार और इमान दार रहे हैं. यह इन की ही बे लाग आवाज़ होगी <span style="color:#990000;">"वोह बुत और शैतान को मानते हैं. वोह लोग कुफ्फर के निस्बत कहते हैं कि ये लोग बनिस्बत मुसलमानों के ज़्यादः राहे रास्त पर हैं "</span> जहाँ भी मुसलमानों के साथ किसी क़ौम का झगडा होता है, तीसरी ईमान दार आवाज़ ऐसी ही आती है. आज जो लोग गलती से मुस्लमान हैं, वक्ती तौर पर इस बात का बुरा मान सकते हैं, क्यूँ कि वोह नहीं जानते कि आम मुस्लमान फितरी तौर पर लड़ाका होता है जिसकी वकालत गाँधी जी भी करते हैं। मुहम्मदी अल्लाह आजतक अपने मुखालिफों का चेहरा मिटा कर उलटी जानिब तो कर नहीं सका मगर हाँ मुसलमानों की खोपडी को समते माजी की तरफ करने में कामयाब ज़रूर हुवा है।</div><br /><div align="justify"><span class=""></span><span style="font-size:130%;color:#990000;">" जो लोग अल्लाह की आयातों के मुनकिर हो जाएँगे उन को जहन्नम में इतना जलाया जाएगा कि इनकी खालें गल जाएँगी और इनको मज़ा चखाने के लिए नई खालें लगा दी जाएगी. बिला शक अल्लाह ज़बरदस्त हिकमत वाला है."</span> </div><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (56)</span></div><div align="justify">गौर तलब है कि अल्लाह की इस हिकमत पर ही मुहक़्क़िक़ान क़ुरआन ने इस लग्वयात को <span style="font-size:180%;color:#006600;">क़ुरआन ए हकीम</span> का नाम दिया है। इस को इतना उछाला गया है कि दुन्या में क़ुरआन एक हिकमत वाली किताब बन कर रह गई है। हिकमत क्या है? बस यही जो मुहम्मद की जेहालत और इस्लामी ओलिमा की अय्याराना चाल। अफ़सोस कि तालीम याफ़्ता मुस्लिम अवाम मेडिकल साइंस की ए बी सी से वाकिफ़ और कानो में बेहिसी का तेल डाले बैठे इन हराम जादों के साथ हम नावाला हम पियाला हैं। </div><div align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">"मुहम्मद का गलबा मदीना पर है, उन का फ़रमान है कि मुस्लमान अपने हर इन्फरादी और इजतमाई मुआमले अल्लाह और उसके रसूल के सामने पेश किया करें( अल्लाह तो कहीं पकड़ में आने से रहा, मतलब साफ़ था का कि अल्लाह का मतलब भी मुहम्मद है. कुछ मसलेहत पसंद लोग मुसलमानों, यहूदियों और दीगरों में अपने मुआमले मुहम्मदी पंचायत में न ले जाकर आपस में बैठ कर निपटा लेते हैं, ऐसे तरीकों की तारीफ़ करने की बजाय मुहम्मद इसे मुनफेक़त की रह क़रार देते हैं. कोई झगडा दो लागों का खामोशी से आपसी समझदारी से ख़त्म हो जाय, यह बात अल्लाह के रसूल को रास नहीं आती. इसको वोह शैतानी रास्ता बतलाते हैं. कुरान के मुताबिक़ हुए फैसले को ही सहीह मानते हैं. हर मुआमले का तस्फिया बहैसियत अल्लाह के रसूल के खुद करना कहते हैं।"</span></div><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (59-73)"</span> </div><br /><div align="justify"><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;"><span class="">"और</span> जो शख्स अल्लाह कि राह में लडेगा वोह ख्वाह जान से मारा जाए या ग़ालिब आ जाए तो इस का उजरे अज़ीम देंगे और तुम्हारे पास क्या उज़्र है कि तुम जेहाद न करो अल्लाह कि राह में।"</span></span></div><div align="justify"><span style="font-size:85%;">"सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (75)</span></div><div align="justify">यह मुहम्मदी क़ुरआन का अहेम पाठ है जिस पर भारत सरकार को सोचना होगा, किसी हिन्दू वादी संगठन को नहीं। ये आयात और इस से मिलती हुई आयतें मदरसों में मुस्लमान लड़कों के कच्चे ज़हनों में घोल घोल कर पिलाई जाती हैं जो बड़े होकर मौक़ा मिलते ही तालिबानी बन जाते हैं, बहरहाल अन्दर से जेहनी तौर पर तो वह बुनयादी देश द्रोही होते ही हैं, जो इस इन में रह कर इस ज़हर से बच जाए वह सोना है. हर राज नैतिक पार्टी को बिना हिचक मदरसों पर अंकुश लगाने की माँग करनी चाहिए बल्कि एक क़दम बढ़ा कर क़ुरआन की नाक़िस तालीम देने वाले सभी संगठनों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। इसका सब से ज़्यादा फ़ायदा मुस्लिम अवाम का होगा, नुक़सान दुश्मने क़ौम ओलिमा का और गुमराह करने वाले नेताओं का।</div><br /><div align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" फिर जब उन पर जेहाद करना फ़र्ज़ कर दिया गया तो क़िस्सा क्या हुआ कि उन में से बअज़् आदमी लोगों से ऐसा डरने लगे जैसे कोई अल्लाह से डरता हो, बल्कि इस भी ज़्यादह डरना और कहने लगे ए हमारे परवर दीगर! आप ने मुझ पर जेहाद क्यूँ फ़र्ज़ फरमा दिया? हम को और थोड़ी मुद्दत देदी होती ----"</span></div><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (77)</span></div><br /><div align="justify">आयात गवाह है की मुहम्मद को लोग डर के मारे <span style="font-size:180%;color:#009900;">"ऐ मेरे परवर दिगर"</span> कहते और वह उनको इस बात से मना भी न करते बल्कि महजूज़ होते जैसा की कुरानी तहरीर से ज़ाहिर है। हकीक़त भी है क़ुरआन में कई ऐसे इशारे मिलते हैं कि अल्लाह के रसूल से वोह अल्लाह नज़र आते हैं. खैर - - -खुदा का बेटा हो चुका है, ईश्वर के अवतार हो चुके है तो अल्लाह का डाकिया होना कोई बड़ी बड़ा झूट नहीं है। मुहम्मद जंगें बशक्ले हमला लोगों पर मुसल्लत करते थे जिस से लोगों का अमन ओ चैन गारत था। उनको अपनी जान ही नहीं माल भी लगाना पड़ता था. <span style="color:#990000;">हमलों की कामयाबी पर लूटा गया माले गनीमत का पांचवां हिस्सा उनका होता.</span> <span style="color:#990000;">जंग के लिए साज़ ओ सामान ज़कात के तौर पर उगाही मुसलमानों से होती</span>। दौर मज्कूरह में इसलाम मज़हब के बजाए गंदी सियासत बन चुका था. अज़ीज़ ओ अकारिब में नज़रया के बिना पर आपस में मिलने जुलने पर पाबंदी लगा दी गई थी। तफ़रक़ा नफ़रत में बदलता गया. बड़ा हादसती दौर था. भाई भाई का दुश्मन बन गया था. रिश्ते दारों में नफ़रत के बीज ऐसे पनप गए थे कि एक दूसरे को बिना मुतव्वत क़त्ल करने पर आमादा रहते, इंसानी समाज पर अल्लाह के हुक्म ने अज़ाब <span class="">नाजिल </span>कर रखा था। रद्दे अमल में मुहम्मद के मरते ही दो जंगें मुसलमानों ने आपस में ऐसी लड़ीन कि दो लाख मुसलमानो ने एक दूसरे को काट डाला गलिबन ये कहते हुए की इस इस्लामी अल्लाह को तूने पहले तसलीम किया - - - नहीं पहले तेरे बाप ने - - </div><br /><div align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" ऐ इंसान! तुझ को कोई खुश हाली पेश आती है, वोह महेज़ अल्लाह तअला की जानिब से है और कोई बद हाली पेश आवे, वोह तेरी तरफ़ से है और हम ने आप को पैगम्बर तमाम लोगों की तरफ़ से बना कर भेजा है और अल्लाह गवाह काफ़ी है."</span> </div><div align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (79)</span></div><br /><div align="justify">यह मोहम्मदी अल्लाह की ब्लेक मेलिंग है। अवाम को बेवकूफ बना रहा है. आज की जन्नत नुमा दुनिया, जदीद तरीन शहरों में बसने वाली आबादियाँ, इंसानी काविशों का नतीजा हैं, अल्लाह मियां की तामीरात नहीं। अफ्रीका में बसने वाले भूके नंगे लोग कबीलाई खुदाओं और इस्लामी अल्लाह की रहमतों के शिकार हैं. आप जनाब पैगम्बर हैं, इसका गवाह अल्लाह है, और अल्लाह का गवाह कौन है? आप ? बे वकूफ मुसलमानों आखें खोलो।</div><br /><div align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">।"पस की आप अल्लाह की रह में कत्ताल कीजिए. आप को बजुज़ आप के ज़ाती फेल के कोई हुक्म नहीं और मुसलमानों को तरगीब दीजिए. अल्लाह से उम्मीद है की काफ़िरों के ज़ोर जंग को रोक देंगे और अल्लाह ताला ज़ोर जंग में ज़्यादा शदीद हैं और सख्त सज़ा देते हैं।"</span></div><div align="justify"><span style="font-size:85%;"><span class="">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- <span class="">आयात </span></span>(84)</span></div><br /><div align="justify">कैसी खतरनाक आयात हुवा करती थी कभी ये गैर मुस्स्लिमो के लिए और आज खुद मुसलामानों के लिए ये खतरनाक ही नहीं, शर्मनाक भी बन चुकी है जिसको वह ढकता फिर रहा है। मुहम्मद ने इंसानी फितरत की बद तरीन शक्ल नफ़रत को फ़रोग देकर एक राहे हयात बनाई थी जिसका नाम रखा इसलाम। उसका अंजाम कभी सोचा भी नहीं, क्यूंकि वोह सदाक़त से कोसों दूर थे. यह सच है कि उनके कबीले कुरैश की सरदारी की आरजू थी जैसे मूसा को बनी इस्राईल की बरतरी की, और ब्रह्मा को, ब्रह्मणों की श्रेष्टता की. इसके बाद उम्मत यानी जनता जनार्दन कोई भी हो, जहन्नम में जाए. आँख खोल कर देखा जा सकता है, सऊदी अरब मुहम्मद की अरब क़ौम कि आराम से ऐशो आराइश में गुज़र कर रही है और प्राचीन बुद्धिष्ट अफगानी दुन्या तालिबानी बनी हुई है, सिंध और पंजाब के हिन्दू अल्कएदी बन चुके हैं, हिदुस्तान के बीस करोड़ इन्सान मुफ़्त में साहिबे ईमान बने फिर रहे है, दे दो पचास पचास हज़ार रुपया तो ईमान घोल कर पी जाएँ. सब के सब गुमराह। होशियार मुहम्मद की कामयाबी है यह, अगर कामयाबी इसी को कहते हैं. </div><br /><div align="right"><span style="font-size:180%;color:#990000;">'मोमिन</span>' </div><br /><div align="justify"></div><br /><div align="justify"></div>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-80410936501826281702009-05-05T09:22:00.000-07:002009-05-06T07:48:47.528-07:00हर्फ़ ए ग़लत (यानी क़ुरआनी हक़ीक़त)<p align="center"><br /><span style="font-size:180%;color:#660000;">सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा</span><br />(पहली किस्त) </p><p align="center"><span style="color:#003333;"><span style="font-size:180%;">ईमान और ईमानदारी की बात </span></span></p><br /><p align="justify"><span style="color:#006600;"><span style="font-size:130%;"><span class="">"शुरू करता हूँ मैं अपने ज़मीर की आवाज़, ज़र्फ़ के मेयार, इल्म ए जदीद की गवाही और ईमान ए फितरत के रौशन सदक़त्तों के साथ कि जो कुछ भी मेरी नियत होगी, वास्ते फलाह ए मखलूक और बराए इंसानियत होगी. किसी से लगाव होगा न किसी से बैर और न ही किसी का डर या लिहाज़,"मैं एक मोमिन हूँ जो ईमान को हक और फितरी तकाजों पर नापता, तोलता और मानता है." बकौल ग़ालिब - - -</span></span></span></p><p align="center"><span style="color:#006600;"><span style="font-size:130%;">वफ़ा दरी बशर्ते उस्तवारी असल ए ईमान है.</span></span></p><p align="justify"><span style="color:#006600;"><span style="font-size:130%;"><span class="">मुस्लिम बहार सूरत इसलाम को तस्लीम किए हुए होता है, चाहे वह बात हक हो या नाहक. इस्लाम इस धरती पर नाजायज़ निजाम है जो मज़हब ए नाकिस तो हो सकता है, धर्म नहीं, ईमान नहीं. माले गनीमत के मज़्मूम ज़रीया मुआश ने इसे नई जहत दे दी है जो की धीरे धीरे एक बड़ी सूरत बन कर जंगी सनत अख्तियार कर गया है. क़त्ताल, जज़्या और मुस्लमान बन जाने की सूरत में ज़कात की भरपाई, अवाम के साथ ज़ुल्म, ज़्यादती और ना इन्साफी के सिवा इसलाम ने दुन्या और इंसानियत को और कुछ नहीं दिया. इसलाम ने दुन्या पर जो कहर ढाया है, और जो इंसानी खून पिया है, कसी दूसरी तहरीक ने नहीं. माजी की परदापोशी नहीं की जा सकती. कुरान खुद साख्ता रसूल अल्लाह मुहम्मद की गढ़ी हुई बकवास है जिस को किताब ही शक्ल देकर कलाम ए इलाही बना दिया गया है. यह किताब नफरत, तशद्दुद, बोग्ज़, मारकाट और न इंसाफी सिखलाती है, इंसानों में आपस में निफाक पैदा करती है, जंग जंग और जंग, इंसानी समाज को तो पुर अम्न रहने ही नहीं देती. नई इंसानी क़द्रें हैं कि इसको बर्दाश्त करके भी मुसलमानों को राय दे रही हैं कि वह अज़ दस्त खुद कुरानी सफ़हात को फाड़ कर नज्र खाक करदें, यह उनकी नेक सलाह है, वरना वह चाहें तो खुद मुसलमानों को इन के बुरे अंजाम तक पहुंचा सकते हैं. मुसलमानों ने कालिमा ए नामुराद को पढ़ कर सिर्फ़ अपना आकबत संवारा है(दर अस्ल ये खुद फरेबी है), दुन्या को दिया क्या है? दुन्या में जो कुछ है इन्हीं माददा परस्त मगरीबी ममालिक की देन है और तमाम साइंस दानों के इल्म की बरकतें हैं, जिनको यह आकबत के सौदागर आलिमान दीन नेहायत बेगैरती के साथ भोग रहे हैं.</span></span></span></p><p align="justify"><span style="color:#006600;"><span style="font-size:130%;"><span class=""> अब मैं नादर क़ौम की जुबूं हाली के असबाब पर आता हूँ. इसलाम अरबों की बद तरीन मुआशी बद हाली की हालत में अपनी न मुरादी के साथ वजूद में आया था. डाका ज़नी,शब खून, और लूट पाट अभी तक तारीख इंसानी में जुर्म हुआ करता था, माल ए गनीमत कह कर मुहम्मद ने इसे जायज़ करार दे दिया. मज़हब के नाम पर बेकारों को जंगी लूट की आसान रोज़ी मिल गई, बनू नसीर और खैबर जैसी हजारों बस्तियां इस नई वबा से तबाह ओ बर्बाद हुईं. दूसरी तरफ " इस्लामी इल्म ए जेहालत" का रूह्जन मुस्लिम हुक्मरानों ने बढाया जिस से एक नया तबका पैदा हुवा जो की जंगी ससऊबतों से बचना चाहता था, वोह इस में लग गया. यह तालीम याफ़्ता मगर बुज़ दिल गिरोह जोर कलम दिखलाने लगा और वह ला खैरा और जाहिल गिरोह ज़ोर ए तलवार. फिर क्या था झूट, दरोग, लग्व, मुबालगा, और अययारी के पुल बंधने लगे, जंगों में फ़रिश्ते लड़ने लगे, अल्लाह मुदाखलत करने लगा और जिब्रील अलैहिस सलाम मुहम्मद के हम रकाब हुए. सैकडों साल से इस इल्म जारहय्यियत में दानिश मंदी और फ़ल्सफ़े भरे जा रहे हैं. मुसलमानों के सबसे बड़े मुजरिम यह मरदूद ओलिमा हैं. यह नफ़ी में मुसबत पहलू निकलने में माहिर होते हैं. जाहिल को उम्मी लिख कर उसकी नाकबत अन्देश्यों में, दूर अन्देश्याँ भरते रहते हैं. हमेशा ही इनके मक्र और रिया कारियों का बोलबाला रहा है, कई बार इनका सर भी ज़हरीले नागों की तरह कुचला गया है और चीन की तरह ही इन पर पाबन्दी भी लगाई गई है मगर यह कमबख्त होते हैं बड़े सख्त जान. आज इन का उरूज है. हिदोस्तान का जम्हूरी निजाम इनके लिए फलने फूलने के लिए बहुत साज़गार है. इनको परवाह नहीं मुसलमानों की बदहाली की, इनकी बाला से, इनको तो मुसलमानों पर इकतेदार चाहिए और माल ए मुफ़्त के साथ साथ इज्ज़त मुआबी. इनका एक मुनज्ज़म गिरोह बना हुवा है जो मुस्लिम मुआसरे को चारो तरफ से जकडे हुए है. बहुत बिडला कोई होगा जो इनके जाल से बचा हुवा होगा. जेहाद की लूट ख़त्म हो चुकी है मगर दर पर्दा मदरसे की तालीम मुसलमानों को मुतास्सिर किए हुए है. यह धूर्त ओलिमा हिंदुस्तान की सियासत में चिल्लाते फिरते हैं की इसलाम अम्न का अलम बरदार है. कोई इन से पूछे की मदरसे में पढाई जाने वाली कुरान और हदीस किया कोई और हैं या वही जिनमें जंग और नफरत की सडांध है? माले गनीमत जो कभी गैर मुस्लिमों से बज़ोर ए तलवार मुस्लमान वसूल किया करते थे, अब वह काम हर आलिम मुसलमानों से जज़्या किसी न किसी शक्ल में ले रहा है. इस से मुसलमानों का दोहरा नुकसान हो रहा है कि इसके लिए उनको इल्म ए नव से महरूम रखा जा रहा है, दूसरा माली नुकसान और कभी कभी जानी नुकसान भी. मुसलमानों की भलाई इसी में है की सरकार इस मुस्लिम इशू को ही बंद करे, बहैसियत मुस्लमान कहीं पर कोई रिआयत न हो. अक़ल्लियत का ख्याल ही खाम है, इसे वर्ग विशेष कहना बंद हो. सरकार ने जो स्कूल कालेज खोल रखे हैं, वहां कोई भेद भाव नहीं है, हर बच्चा वहां तालीम हासिल कर सकता है. जो इसको तर्क करके मदरसा जाता है इसकी ज़िम्मेदारी सरकार क्यूं ले? बल्कि ऐसे लोगों पर नजर ए तहकीक़ रहे जो इन मदरसों में पढ़ कर तालिबानी राहों पर जाने के लिए अमादा किए जाते हैं. मैं मुसलमानों को आगाह करता हूँ कि तुम्हारा मज़हब इसलाम मुकम्मल तौर पर गलत है जिस पर सारा ज़माना लानत भेज रहा है. तुम्हारे यह आलिम तुम्हारे मुजरिम हैं. इनको समझने की कोशिश करो. अभी सवेरा है ,जग जाओ, जागना बहुत आसान है, बस दिल की आँखें खोलना है. तुम्हें तर्क ए इसलाम करके खुदा न खास्ता हिन्दू नहीं बनना है, न क्रिशचन, मामूली से फर्क के साथ एक ठोस मोमिन बनाना है. तुम्हारा नाम, तुम्हारा कल्चर, तुम्हारा तमद्दुन, रस्म ओ रिवाज, ज़बान कुछ भी नहीं बदलेगा, बस नजात पाओगे इस झूठे अल्लाह से जिसको मुहम्मद ने चौदह सौ साल पहले गढा था. नजात पा जाओगे उस खुद साखता रसूल से और उसकी जेहालत भरे एलान कुरान और हदीस से जो तुम्हारे ऊपर लगे हुए दाग है.</span></span></span></p><p align="right"><span style="color:#006600;"><span style="font-size:130%;"><span style="font-size:180%;">'मोमिन'<br /></span></span></span></p><span style="color:#006600;"><span style="font-size:130%;"><p align="center"><span style="font-size:180%;">कुरआन कहता है</span> </span></span></p><p align="justify"><br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">"ऐ लोगो! परवर दिगर से डरो जिसने तुमको एक जानदार से पैदा किया और इस जानदार से इंसान का जोड़ा पैदा किया और इन दोनों से बहुत से मर्द और औरतें फैलाईं और क़राबत दारी से भी डरो. बिल यक़ीन अल्लाह ताला सब की इत्तेला रखते हैं</span>।</p><p align="justify">"सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (१) </p><p align="justify">क़ुरआन में मुहम्मद तौरेती विरासत को दोहरा रहे हैं कि आदम की पसली से हव्वा की रचना हुई और वह आदम की जोड़ा हुईं, उन से सुब्ह ओ शाम लड़का लड़की होते रहे और जोड़े बनते गए, इस तरह कराबत दारियां जमीन पर फैलती गईं, वह भी सिर्फ साढ़े छ हज़ार साल पहले जब कि इंसान का वजूद साढ़े छ करोड़ साल पहले तक हो सकने के आसार हम को हमारी साइन्सी मालूमात बतलाती है। लाखों साल की पुरानी इंसानी इतिहास स्कूल के बच्चों को पढाया जा रहा है और मुस्लिम क़ौम की क़ौम आज भी इस आदम और हव्वा साढ़े छ हज़ार साल पहले की कहानी पर यक़ीन रखती है। अल्लाह कहता है उससे डरो, कराबत दारों से डरो, भला क्यूँ? इस लिए कि अगर डरेंगे नहीं तो इन जेहालत की बातों का मजाक नहीं उडाएँगे? मुहम्मदी अल्लाह कभी जानदार से बेजान को निकलता है, तो कभी बेजान से जानदार को, आदम को मिटटी से बना कर जान डाल दिया तो अभी पिछली सूरह में ईसा गारे की चिडिया बना कर, उसकी दुम उठाकर उस में फूंक मारते है और वह फुर्र से उड़ जाती है। यह क़ुरआन नहीं बाजी गारी का तमाशा है, मुसलमान तमाशा बने हुए हैं और सारा ज़माना तमाशाई। शर्म तुम को मगर नहीं आती<span style="font-size:130%;color:#990000;">।</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" जिन बच्चों के बाप मर जाएँ तो उनका मॉल उन्हीं तक पहुँचते रहो, अच्छी चीज़ को बुरी चीज़ से मत बदलो और अगर तुम्हें एहतेमाल हो कि यतीम लड़कियों के साथ इंसाफ न कर सकोगे तो औरतों से जो तुहें पसंद हों निकाह कर लो, दो दो, तीन तीन या चार चार, बस कि इंसाफ हर एक के साथ कर सको वर्ना बस एक। और जो लौंडी तुम्हारी मिलकियत में है, वही सही,"</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (2-3)</span> </p><p align="justify">जंग जूई का दौर था, मर्द खून खराबे में मुब्तेला रहा करते थे जिस की वजह से औरतें इफ़रात हुआ करती थीं, बेहतर ही हल था यह कि साहिबे सरवत मर्दों के किफालत में दो दो तीन तीन या चार चार औरतें आ जाया करती थीं, बनिसबत हिन्दू समाज के जहाँ औरतें खैराती मरकजों को, माँ, बहन, बीवी का मक़ाम न पा कर, पंडो को अय्याशी के लिए देदी जाती थीं, जहाँ उनकी ज़ईफी दर्द नाक हो जाया करती थी। उस वक़्त बे निकाही लौडियां मुबशरत के लिए जायज़ हुआ करती थीं, खुद मुहम्मद लौडियां रखते थे. एक लौंडी मारिया से तो इब्राहीम नाम का एक बच्चा भी हुआ था जो ढाई साल का होकर मर गया दूसरी लौंडी ऐमन से मशहूर ए ज़माना ओसामा हुवा जिसकी वल्दियत ज़ैद बिन हरसा (या ज़ैद बिन मुहम्मद) थी . जीती हुई जंगों में गिरफ्तार औरतें लौंडियाँ हुआ करती थीं. इज्तेहाद यानी परिवर्तन इर्तेकई (रचना काल) मराहिल का तकाज़ा है कि आज लौंडियों के साथ मुबशरत हराम हो गया है, अब घर की खादमा को मजाल नहीं की उस पर बुरी नज़र डाली जाए। जब इतना बड़ा बदलाव आ चुका है कि मुहम्मद की हरकतें हराम हो चुकी है तो इर्तेकई तक़ाज़े के तहत बाकी मुआमले में बदलाव क्यूँ नहीं? </p><p align="center">निजाम दहर बदले, आसमां बदले, ज़मीं बदले।कोई बैठा रहे कब तक हयाते बे असर ले के.<br />अल्लाह यतीम के मॉल खाने को आग से पेट भरने की मिसाल देता है. कबीले में मुखिया के मर जाने के बाद विरासत की तकसीम अपने आप में पेचीदा बतलाई गई है, जो कि आज लागू नहीं हो सकती. क़ुरआन में जो हुक्म अल्लाह देता है वह इतना मुज़बज़ब और गैर वाज़ह है कि आज इस की बुन्याद पर कोई क़ानून नहीं बनाया जा सकता. आप सुनते होंगे कि फ़त्वा फ़रोश कैसी कैसी मुताज़ाद गोटियाँ लाते हैं. उनका हर फ़ैसला लाल बुझक्कड़ का फरमान जैसा होता है.<br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">" ये सब एहकम मज़कूरह खुदा वंदी ज़ाबते हैं और जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह उसको ऐसी बहिषतों में दाखिल करेगा जिसके नीचे नहरें जारी होंगी. हमेशा हमेशा इसमें रहेंगे. यह बड़ी कामयाबी है."</span> </p><p align="justify">सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (8-13)</p><p align="justify">यह क़ुरआन की आयत बार बार दोहराई गई है. अहले <span class="">रीश </span>(दाढ़ी) अपनी दढ़ियाँ इसके तसव्वुर से तर रखते हैं. इस मुहज्ज़ब दुन्या के लिए कुरानी निजाम ए हयात पर एक नजर डालिए जिसे पढ़ कर शर्म आती है - - </p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" तुम पर हराम की गई हैं तुम्हारी माएँ, और तुम्हारी बेटियाँ और तुम्हारी बहनें और तुम्हारी फूफियाँ और तुम्हारी खालाएँ और भतीजियाँ और भांजियां और तुम्हारी वह माएँ जिन्हों ने तुम्हें दूध पिलाया है और तुम्हारी वह बहनें जो दूघ पीने की वजह से हैं. तुम्हारी बीवियों की माएँ और तुम्हारी बीवियों की बेटियाँ जो तुम्हारी परवरिश में रहती हों, इन बीवियों से जिन के साथ तुम ने सोहबत की हो और तुम्हारी बीवियों की बेटियाँ या दो सगी बहनें."</span><br /><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (23)</span> </p><p align="justify">ऐसा नहीं था की मुहम्मद से पहले ये सारे रिश्ते रवा और जायज़ हुवा करते थे जैसा की आज मुस्लमान समझ सकते हैं. मगर कुरआन में कानून जेहालत मुरत्तब करने के लिए यह मुहम्मद की अध कचरी कोशिश है. इसे ही ओलिमा मुश्तहिर करके आप को गुमराह किए हुए हैं<span style="font-size:130%;color:#990000;">।</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" इस तरह से बीवी न बनाव कि सिर्फ मस्ती निलालना हो - - अलाह्दह होने के बाद आपसी रज़ामंदी से महर अदा करो. लौडियों से निकाह करो तो इनके मालिकों से इजाज़त लेलो. वह न तो एलान्या बदकारी करने वालियां हों, और न खुफ्या आशनाई करने वाली हों. मनकूहा लौंडियाँ अगर बे हयाई का इर्तेकाब करती हैं तो इन पर सज़ा निस्फ़ है, बनिस्बत आम मुस्लमान औरतों के. इस के बाद भी मर्द अगर ज़ब्त ओ सब्र से काम लें तो अल्लाह मेहरबान है."</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (24-25)</span> </p><p align="justify">ये सब कबीलाई बातें क्या आज कहीं पाई जाती हैं? लौंडियों और गुलामों का ज़माना गया उसकी बातें एक कौम की इबादत और तिलावत बनी हुई है, इस से शर्म नाक बात और क्या हो सकती है? एक दरमियानी सूरत नज़र आती है कि मुसलमान अज़ खुद नमाज़ों में इन आयतों को बज़ोर आवाज़ रोजाना पढा करें, शायद कभी कुरानी शैतान उनके सामने आकार खडा हो जाए और वह नमाजों पर लाहौल पढना शुरू करदें। बहार हल मुसलमानों को बेदार होना है।<br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">." मर्द हाकिम हैं औरतों पर, इस सबब से की अल्लाह ने बाज़ों को बअजों पर फजीलत दी है ---- और जो औरतें ऐसी हों कि उनकी बद दिमागी का एहतेमाल हो तो इन को ज़बानी नसीहत करो और इनको लेटने की जगह पर तनहा छोड़ दो और उन को मारो, वह तुम्हारी इताअत शुरू कर दें तो उन को बहाना मत ढूंढो." </span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (34)</span><br /></p><p align="justify">औरतों के साथ सभी धर्मों ने ज्यादतियाँ कीं हैं, बाकियों में औरतों ने नजात पा ली है मगर इस्लाम में आज भी औरत की हालत जैसी की तैसी है। जेहनी एतबार से औरतें मर्दों से कम नहीं हैं, उन्हें अच्छी तालीम ओ तरबीयत की ज़रुरत है. जिस्मानी एतबार से वोह सिंफे नाज़ुक ज़रूर हैं और यही उनकी ताक़त है जो मर्द की कशिश का बाईस बनती है. मर्द की शुजाअत और औरत कि नज़ाक़त, दोनों मिल कर ही कायनात को जुंबिश देते हैं. मखलूक की रौनक इन्हीं दोनों अलामतों पर मुनहसर करती हैं. हाकिम और महकूम कहना इस्लामी बरबरियत है, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।<br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">." अल्लाह मुसलमानों को मिल कर रहने की नसीहत देता है, (जैसा कि तमाम मौलाना आम मुसलमानों को दिया करते हैं मगर अंदर ही अंदर उनको आपस में लड़ाए रहते हैं ताकि उन की डेढ़ ईंट की मस्जिद कायम रहे.)अल्लाह खालिके मख्लूक़ अपनी कमज़ोरी बतलाता है कि आदमी कमज़ोर पैदा किया गया है, फिर अपनी खूबियाँ गिनाता है और अपनी गुन गाता है. आयातों में उसका अपना मुँह है, जो मुँह में आता है बोलता चला जाता है. अजीयत पसंद कुरआन उठा कर देख लें."</span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (27-33) </span><br /></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">" खुद साख्ता रसूल का अल्लाह बखीलों को बिलकुल पसंद नहीं करता, इन में हज़ार कीड़े निकालता है, और खर्राचों को बखीलों से ज्यादा ना पसंद करता है. दोनों के बुरे अंजाम से ज़मीन से लेकर आसमान तक के लिए आगाह करता है. बस पसंद करता है तो सिर्फ़ उन शाह खर्चों को जो अल्लाह और उस के रसूल की राह में खर्च करे. कोई मुस्लमान कोई बड़ा खर्च करदे तो मुहम्मद के दिल को धक्का लगता है कि रक़म तो अल्लाह के बाप की थी. उनकी पैरवी मुंबई के सय्यदना कर रहे हैं कि उनकी इजाज़त के बगैर क़ौम अपने बेटे का मूडन तक नहीं कर सकती, गधी क़ौम पहले उनको टेक्स अदा करे. हम ऐसे बोहरों और खोजों जैसों को गधा ही कहते हैं जिनके धर्म गुरू पेरिस मे रह कर उनकी दौलत पर ऐश करते हैं."</span> <span style="font-size:85%;">सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (37-42)</span> </p>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-40538000685114274282009-05-02T03:58:00.000-07:002009-05-02T04:28:26.740-07:00साकिब खान के नाम - - -<p>बदरियाँ - - -(१०)</p><p align="justify"><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;">साकिब खान साहब! आप एक मुसलमान आदमी लगते है, बह्स के लिए मुझ को आमादा करते हैं, बहस के अंजाम में या तो आप थक कर काफिर हो जाएँगे और या मैं थक कर मुस्लिम. जनाब , आप ने गौर नहीं किया कि मैं काफिर हूँ न मुस्लिम, मैं फक़त मोमिन हूँ , जिसका दीन ए इसलाम नहीं, दीन ईमान है. ईमान की गहराइयों में आप जैसे तसफ्फुफ़ शनास (संत्वादी) को जानना चाहिए. ईमान का वजूद इसलाम से हजारों साल पहले आदमी में इंसानियत आने के साथ साथ आ चुका था. सुकरात, अरस्तु, गौतम,ईसा और इन जैसे हजारों के हाथो में ईमान के चराग थे. सच पूछिए तो ईमान का मुहम्मद ने इस्लामी करण करके मुसलमानों को गुमराह कर दिया है कि "लाइलाहाइललिल्लाह मुहम्मदुररसूलअल्लाह" ईमान है. मशहूर हस्ती तबा ताबेईन हसन बसरी को जानें, जो दिन भर पसीना बहा कर मजदूरी किया करते थे जिन्हों ने कभी मोहम्मादुर रसूल अल्लाह नहीं कहा. उवैस करनी को समझें जो ऊंटों की चरवाही की नौकरी किया करते थे मगर मोहम्मद के लूट के माले गनीमत से कोसों दूर छुपे छुपे फिरते थे. कबीर ने ताने बने को चला कर रोटी को जायज़ किया है, और जिन बे शुमार सूफियाय करम की बात आप कर रहे हैं दर असल वह आज की सेकुलर हस्तियों की रूहानी कड़ी थे जिनके तुफैल में ही मुसलमान आज भारत में थोड़े बहुत सुर्ख रू है। शिर्डी का फकीर उर्फ़ ए आम में 'साईं बाबा' कहा जाने वाला पंज वक्ता नमाजी हुवा करता था मगर कट्टर मुस्लमान न होकर "सब का मालिक एक" का ईमान ए सादिक रखता था, जो नर्म गोशा हिन्दुओं का पूज्य बन गया है और ताअस्सुबी मुसलमानों के लिए यही उसका ईमान ए सादिक, कालिमा ए कुफ्र, बाइसे तरके ता अल्लुक़ बन गया. <br />आज के सेकुलर आज़ादी से पहले मुसलमानों द्वरा लाहौल पढ़ कर धिक्कारे जाते थे जिनके साए में मुस्लमान आज पनाह चाहते हैं। बरेली के आला हज़रात ने उन तमाम मुसलमानों को काफिर का फत्त्वा दे दिया था जो गांधी जी की मय्यत में शरीक हुए थे, जैसे सकीब साहब ने मुझे काफिर लिख दिया. आप क्या है आप के पैगम्बर मुहम्मद ज़रा ज़रा सी बात पर नव मुस्लिमों को काफ़िर कह दिया करते थे. काफिर कहना मुसलमानों में एक फैशन बना हुआ है। मैं अबोध बंधुओं को बतला दूँ कि काफिर एक किस्म की इस्लामी गाली है, किसी को काफिर कहना बहुत ही अपमान जनक बात है. नाजायज़ संतान की तरह. दूसरा मुसलमानों का मशगला है गर्दन मरना. मेरी इन तहरीरों की सजा इसलाम में मेरा सर कलम कर देना है। कुरान यही सब मुसलमानों को सिखलाता है। गाली देना, सर कलम कर देना, कोई इंसानियत के लिए शुभ पहलू इन के पास है ही नहीं। यह गाली बकते, गर्दनें मारते हुए एक दिन मुल्कों की पहाडियों पर छिपते छिपाते अपनी मौत मर जाएँगे..</span></span> </p><p align="right"><span style="font-size:180%;color:#660000;"><strong>'मोमिन'</strong></span></p>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-25202031480970699032009-05-01T01:53:00.000-07:002009-05-01T02:36:28.586-07:00संगे-असवद<p>बेदारियां -(९)</p><p align="center"><span style="color:#660000;"><span style="font-size:180%;">अलबेदार </span></span></p><p align="justify"><br /><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;">संगे-असवद वह बे तराशा हुवा इस्लामी बुत है जिसने उम्मी अर्थात निरक्षर मुहम्मद को पैगम्बरी दिलाई. बुतों से उनको नफ़रत थी मगर असवद से उनकी आस्था ही नहीं जुडी हुई थी, बल्कि उस पत्थर से उन्हें स्नेह भी था. ये संगे असवद ही तो था जिसने मुहम्मद को मूसा और ईसा कि तरह बड़ा पैगम्बर बन्ने साहस प्रदान किया. असवद ने मुहम्मद को बड़े बड़े ख्वाब दिखलाए जो कि उनकी जिंदगी में ही पूरे हुए, दर परदा असवद की आस्था उनके दिल में बढती गई और वह दीवानगी में आ कर उसे चूमने लगे. इस से उनके सम कालीन प्रतिनिधि सहमति न रखते हुए भी मुहम्मद का अनुसरण करते थे. आज तमाम उम्मते मुस्लिमा (मुहम्मद के उपासक) मूर्ति पूजा से परहेज़ करती है मगर असवद को काबा जाकर मूर्ति पूजक की तरह ही बल्कि उससे भी बढ़ कर अस्वाद को चूमती है.<br />इसकी जड़ मक्के के उस वाक़िए में छुपी हुई है जब काबा कि एक दीवार गिर गई थी और दोबारा बनाई जा रही थी. मक्का के क़बीलों में इस बात पर तकरार हो गई थी कि इस में से गिरा संगे असवद दोबारा किस क़बीले का मुखिया स्थापित करेगा? गौर तलब है कि यह संगे असवद क्षितिज से गिरा हुवा शहाब साक़िब (उल्का पिंड) था. जो कि उसी समय से काबा की दीवार में खुदा कि भेजी हुई निशानी के तौर पर लगा हुवा था,जब वह आकाश से गिरा था. वहां तकरार में आम आदमियों में मुहम्मद भी मौजूद थे, तकरार इस बात पर खत्म हुई कि कल जो श्रद्धालु सब से पहले काबा में दाखिल होगा उसकी बात मान ली जाएगी. बस फिर क्या था, पैगम्बरी के अभिलाषी मुहम्मद पता नहीं रात के अँधेरे में ही किस वक़्त काबे में अपनी अभिलाषा को लेकर घुस आए. सुब्ह हुई, हज़रात वहां उदित पाए गए, न्याया धीश बन्ने का मौक़ा हाथ लगा. एक चादर मंगाई उस पर संगे असवद को अपने हाथों से उठा कर रखा और हर कबीले के मुखिया को बुलाया, सब से चादर पकड़ कर असवद को दीवार तक ले जाने कि बात कही, जब चादर असवद को लेकर दीवार तक पहुँच गई तो होशियार मोहम्मद ने आगे बढ़ कर पत्थर असवद को चादर से उठाया और दीवार में अपने हाथों से स्थापित कर दिया लोग किं कर्तव्य विमूढ़ रह गए. इस हाज़िर दिमागी पर मुहम्मद की अवाम में तो वाह वाही हुई मगर कबीलाई मुखियों ने अपने ख़ुद ठगा हुवा पाया. ठगा जाने का ख्याल तब और जोरों पर आया जब इसी शख्स ने एलाने पैगम्बरी करदी.<br />इस वाकिए के बाद पैदाइशी मूर्ति पूजक मुहम्मद ने जब मूर्ति पूजा के विरोध में अभियान चलाया तो अपनी मूर्ति पूजक प्रकृति को संगे असवद तक सीमित कर दिया। इस के एहसान मंद रहे, इसको चूमते रहे, इसका कर्ज़ अपनी उम्मत से भी बुत चुम्मी करा के चुकवा रहे हैं. मुहम्मद बुत परस्ती ही नहीं, अव्वल दर्जे के अंध विश्वासी भी थे . मकड़ जाल बिछाए हुए यह आलिमाने दीन समाज में जो त्रुटियां और व्यक्ति में जो कमजोरियां देखते हैं वैसा ही रसूली उपचार करते हैं. </span></span></p><p align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">"हर्फ़ ऐ ग़लत" का इंतज़ार कीजिए ।</span><span style="font-size:130%;color:#990000;"> </span></p><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;"><p align="right"><br /></span></span><span style="font-size:180%;color:#660000;">मोमिन</span></p><p align="justify"><span style="color:#000099;">नोट - - -मेरी तहरीर की सदाक़तों का फ़ायदा उठाइए और माकूल जवाब दीजिए जो फितरी सच हो. आप की धोंस-धमकी का किसी को कोई फायदा नहीं. मेरा लब ओ लहजा इन अय्यार ओलिमा के खिलाफ इस से भी सख्त होगा जो करोरो भोले भाले मुसलमानों को सदियों से गुमराह किए हुए हैं. मेरी जान की कीमत इस के लिए ? कुछ भी न होगी.</span></p>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-89370080540045299712009-04-29T21:06:00.000-07:002009-04-29T22:00:30.214-07:00खुदा<p> बेदारियां -(८)</p><p align="center"><span class=""></span><span style="font-size:180%;color:#660000;">अलबेदर </span></p><span style="font-size:180%;color:#660000;"></span><p align="justify"><br /><br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">खुदा बहुत ही व्यक्ति गत मुआमला है. इसे मानने और न मानने या अपने तौर पर मानने की आज़ादी हर इंसान को होना चाहिए. वैसे खुदा को मानने का फ़ायदा जेहनी शांति से अधिक और कुछ भी नहीं, वह भी ज़्यादः हिस्सा आत्म घात है और थोडा सा मनोवैज्ञनिक उपचार. मज़हब और धर्मों ने खुदा को लेकर मानव अधिकार में सेंध लगा कर इस को समूह के हवाले कर दिया है. इस तरह मानव जाति को खुदा का कैदी बना कर रख दिया. खास कर इस्लामी मुमालिक में अंतर राष्टीय "खुदा" क़ुरआनी "अल्लाह" के रूप में बदल गया है. अब यहाँ अवाम इज्तिमाई (सामूहिक) इस्लामी अल्लाह का कैदी बन गई है, इस तरह वहां पर खुदा को मानने की व्यक्ति गत आज़ादी ख़त्म हो गई.<br />खुदा क्या है? हर कोई इसे अपनी जेहनी सतह पर कभी न कभी ज़रूर लाता है. यह लफ्ज़ फारसी का है जो की शब्द खुद से बना है. पौराणिक ईरानी विचार धारा, वह जो खुद बन जाए, जिसे किसी ने नहीं बनाया, जो खुद बखुद बन गया हो वह खुदा है। बाकी तमाम चीजों का बनाने वाला खुदा है. खुदा पूरे ब्रम्ह्मांड एवं समस्त जीव जंतु का मालिक है. यही ख़याल यहूदियों का है मगर थोड़े अंतर के साथ, वोह यह कि मालिक तो पूरे ब्रम्ह्मांड एवं समस्त जीव जंतु का है मगर मेहरबान है सिर्फ क़ौम यहूद पर. इसी तरह इस्लामी अल्लाह है तो रब्बुल आलमीन मगर जन्नत देगा सिर्फ मुसलमानों को, बाकियों को नरक में झोंकेगा. ईसाइयत भी इस तंग नज़री से मुक्त नहीं. बहार हाल इन सब के खुदाओं की बुनियाद ईरानी फिलासफ़ी पर रखी हुई है कि खुदा खुद से है, इसका बनाने वाला कोई नहीं. सब का बनाने वाला वह है वोह एक है, इस बात पर इन सभों को इत्तेफाक है. हिदू आस्था इस से कुछ हट के है, वोह अकेला नहीं बल्कि विविध अधिकारों के अंतरगत वोह पूरी टीम है मगर खुद साख्ता तीन हैं १-ब्रम्ह्मा २-विष्णु ३-महेश। पहले का काम है ब्रम्ह्मांड की उत्पत्ति, दूसरे का काम है इसे चलाना और तीसरे का काम है इस सृष्टि को मिटाना। यह प्रोग्राम लम्बी काल चक्र में चला करता है. तमाम दीगर कौमों से प्रभावित होकर अब बहुत से हिन्दू भी एकेश्वर वाद को मानने लगे हैं.<br />फ़ारसी का ही एक लफ्ज़ है बन्दा जिसके माने इन्सान के ज़रूर होते हैं मगर पाबन्द, दास सामान मानव के अर्थ में सहीह अर्थ होगा. जिसके ऊपर बंदिश हो, जिसके लिए बंदिश शर्ते अव्वल है वैसे ही जैसे खुदा में खुद सरी है.<br />यह खुदा और बन्दे की खुद सरी और पाबन्दी का ईरानी फ़लसफा इन्सान को सदियों से गुमराह किए हुए है. यह फ़लसफा इतना कामयाब रहा है कि एक आम आदमी इस से हट कर कुछ सोचना ही नहीं चाहता, खास कर पूर्वी चिंतन, मगर असलियत इस से कुछ हट के है, न खुदा खुद से है, न बन्दा बंदिश में है. सच तो यह है की इस फलसफे की व्योसायिक समाधियाँ प्रकृति </span><span style="font-size:130%;color:#990000;">की भूमि पर अमर बेल की तरह फैली हुई हैं, जिन पर धर्म ओ मज़ाहिब की पुरोहिती हो रही है. जिस रोज़ यह छलावा इंसानी दिमागों को मुक्त कर देगा उस रोज़ खुदा की खुदी बाकी रह जाएगी न बंदे की पाबन्दी. जो कुछ बचेगा वह प्रकृति होगी जिसका कोई खुदा होगा न कोई बन्दा. अब हम को तो यह ईरानी फ़लसफा उल्टा नज़र आने लगा है. कई मोर्चे पर खुदा बे बस नज़र आने लगा है और बन्दा बा स्वाधिकार होता चला जा रहा है. मानव अपने प्रयत्नों से चाँद तारों तक पहुँच रहा है जो खुदा के लिए एक चैलेन्ज है मगर प्रकृति इस काम में उसकी मदद गार है. हर खुदाई कहर पर इन्सान धीरे धीरे काबू पा रहा है, दुन्या की कई बीमारियाँ इंसान ने जड़ से मिटा दी हैं, इस तरह कहीं कहीं खुदाई पाबन्द नज़र आने लगी है और बनदई स्वछंद . खुदा और बन्दों का मुकाबला तो मज़हबी शोब्देबाजी है. इन्सान खुदा से लड़ने जैसी मूर्खता नहीं करता बल्कि कुदरती आपदाओं से खुद को बचाता है.<br />जंगल में हैवानी राज है जो की खुदा की कल्पना से ना वाकिफ है. हैवानों की व्योवस्था हजारों साल से संतुलित अवस्था में है ,जब कि इंसानी समाज खुदा को लेकर हजारों बार इस ज़मीन को तहस नहस कर चुका है. हैवान पैदैशी हैवान होता है जो मरने तक हैवान ही रहता है. इन्सान भी पैदाइशी हैवान है मगर धीरे धीरे बड़ा होकर इन्सान बन्ने लगता है, इस से पहले कि वह मुकम्मल इन्सान बन पाए धर्म और मज़हब इसे अधूरा कर देते है, वोह भी पूरा इन्सान बनाने के नाम पर. गांघी जी एक महान इन्सान थे मगर धर्म का झूट उनकी घुट्टी में बसा था. पीड़ित अछूतों को हरी जन का नाम तो दे सके मगर ब्रम्ह्म जन ना बना सके नतीजतन वह आज ६० साल बाद भी बरहमन के पैरों में पड़े हैं. मदर टरेसा ऊँची हस्ती थीं मगर ईसाइयत हानि कारक पहलू को सींचती हुई.<br />खुदा, ईश्वर, गोड के समान एक शब्द अरब दुन्या का (इलोही, इलाही, या)अल्लाह है, इस में अल्लाह का मुहम्मद ने इस्लामी करण कर लिया जिस से लफ्ज़ अल्लाह खुदा और ईश्वर या गाड के तत्भव में नहीं रहा. इसका किरदार एक भयानक और डरावनी छवि जैसा हो गया है। शैतान से भी ज्यादह, खबीस,पिशाच या राक्षस जैसी इसकी तस्वीर उभर कर आती है. इतना सख्त कि वजू करने में ज़रा सी एडी की न भीगे तो वहीँ से जहन्नम की आग दौड़ने की आगाही देता है। काफिरों को जहन्नम में इस कद्र जलाता है कि उनकी खालें गल कर बह जाती हैं, फिर उन खालों की जगह दूसरी नई खाल मढ़ कर जलाना शुरू करता है. यह सिलसिला हमेशा हमेशा चलता ही रहता है. इस को इस्लामी ओलिमा अल्लाह की हिकमत कहते हैं और इसी बात को लेकर कुरआन का नाम "कुरान ए हकीम" रक्खा. वह दोज़ख से पूछता रहता है कि तेरा पेट भर कि नहीं? दोज़ख कहती है अभी नहीं. फिर वह इंसानों और जिनों से उसका पेट भरना शुरू कर देता है. दोज़ख के अजाब के अजायब कुरान में देखिए.<br />दर अस्ल मोहम्मद ने इस्लामी अल्लाह को अपनी फितरत के हिसाब से गढा है और उसका पैकर (ढांचा) बना कर खुद उसमे दाखिल हो गए हैं। लाखैरे, बेहिसे और बेकारों की अक्सरियत पाकर मोहम्मद ने अपनी कामयाबी पर अकेले में दिल खोल कर क़हक़हा लगाया होगा कि मै परवर दिगर बन गया, यह मेरा यकीन है। दुन्या के तमाम ग्रंथों में कलंकित ग्रन्थ कुरआन है और दुन्या की जाहिल तरीन क़ौम इस मुहम्मदी अल्लाह के कायल है. हुवा करें, हमें क्या ? अगर हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. मगर ठहरिए, हमें फर्क पड़ता है, जिस तरह मुहम्मदी अल्लाह दुश्मने इन्सान है, वैसे ही इस के मानने वाले दुश्मने इंसानियत हैं.<br />इंतज़ार करें "हर्फ़ ए गलत" का सिलसिला जल्द ही शुरू होने वाला है जो की कुरआन की असलियत को मंज़रे आम पर लाएगा और सोई हुई क़ौम को आवाज़ देगा कि इन खबीस आलिमान ए दीन को पहचानो, जो सदाक़त की पर्दा पोशी करके तुमको सदियों से गुमराह किए हुए हैं. मुसलमानों को रहनुमाई की ज़रूरत है, हर bआज़मीर बाज़मीर इन्सान दोस्त से निवेदन है की हमारा साथ दे।</span></p><p align="right"><span style="font-size:+0;"><span style="color:#660000;"><span style="font-size:180%;"><span class="">'मोमिन</span>'<br /></span></span></span> </p>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-6873374474544459672009-04-28T20:21:00.000-07:002009-04-28T21:33:47.781-07:00शरीयत<div align="left">bedariyan </div><div align="center"> <br /><span style="font-size:180%;color:#660000;"> आन्तरिक खतरा</span></div><div align="justify"><br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">कभी नमाज़ न पढने वाले, शराब के शौकीन, यहाँ तक की सुवर माँस से भी परहेज़ न करने वाले, बकौल श्री अडवानी सेकुलर और बएलन पाकिस्तानी अवाम काएदे मिल्लत मोहम्मद अली जिन्ना के सपनो का पाकिस्तान तालिबानों के हाथों में तालिबानिस्तान बनने जा रहा है. ये इस्लामी इतिहास का एक भयावह द्वार मानव समाज के लिए खुलेगा, जिसकी कल्पना भी अभी करना ठीक नहीं लगता। पाकिस्तान में सदियों पुराना वहशियाना क़ानून शरीयत लागू होगा जो उस वक़्त भी जाहराना और जाबिराना था जब अनपढ़ मुहम्मद ने इस को तथा-कथित ईश वाणी कुरआन का फरमान बता कर लागू किया था, आज तो मानव मूल्य बहुत संवेदन शील हो चुके है. पाकिस्तानी अवाम फिर पीछे की तरफ माज़ी बईद में कूच करेंगे, वैसे भी वहां ज़ेह्नी पस्मान्दगी तो थी ही अब उन पर और भी कज़ा दूनी हो जाएगी. हर गाँव, हर क़स्बे, हर ज़िले और हर शहर में लम्बी लम्बी दाढ़ी वाले छोटे छोटे मोहम्मद रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तलवार से लेकर तोप तक लिए बैठे मोहम्मदी सियासत और रसूली जेहालत का फायदा उठा रहे होंगे.<br />इंसानी हमदर्दी के आलावा पाकिस्तान में मेरी कोई दिल चस्पी नहीं है. "शेख अपनी देख" हम कौन से राम राज में रह रहे हैं? पाकिस्तान जम्हूरियत से इस्लामी मुल्क बन्ने जा रहा है वोह भी तालिबानी, जिसका मतलब है हमारे पडोसी की दुरदशा. तालिबानी आत्माओं का मकसदे हयात है, कुरआन की उन ज़हरीली आयातों को जीना जो जेहाद से परिपूर्ण हैं, उनके लिए मानव जीवन की कोई कीमत नहीं, चाहे वह कोई भी हों, बूढे, बच्चे, औरत, मर्द, मुस्लिम, काफ़िर या कोई जीव, उनको अपना स्वार्थ प्यारा है कि शहीद होने के बाद सीधे हूरों और शराब की नहरों से भरी जन्नत में जाना. इस अटल विश्वास के आगे मानव संवेदना का क्या मूल्य है? सवाल उठता है कि पाकिस्तान में आई हुई इस इस्लामी पस्ती के लिए हम कहाँ तक ज़िम्मेदार हैं? हमारे भविष्य में क्या लिखा है ? जी हाँ, हम सो रहे हैं जम्हूरी चादर ओढ़ के और अपने घर के बच्चों को जम्हूरी छूट दिए हुए हैं कि बेटे जाओ तुम भी तालिबानी कुरआन की आयतें पढो, बड़े होकर जेहादी बनना.<br />कोई मेरे सवाल का जवाब देगा कि तालिबानी कुरआन और हमारे यहाँ मदरसों में पढाई जाने वाली कुरआन में क्या फ़र्क है? यह इब्नुल वक़्त टके पर ईमान बेचने वाले सब के सब इस्लामी आलिम हिन्दुस्तानी अवाम के सामने जेहाद के नए नए माने गढ़ रहे हैं, जेहाद को जद ओ जेहद के शब्द जाल में लपेटे हैं. कुरआन एक बार नहीं बार बार कहता है, अल्लाह के नाम पर क़त्ताल करो. बच गए तो माल ओ मता पाओगे, शहीद हो गए तो हमेशा के लिए जन्नत की ज़िन्दगी होगी जहाँ शराब, जवान हूरें, गिल्मान और फलों से लदी हुई डालियाँ होंगी, हीरे जवाहरात के महल होंगे. दर अस्ल जेहाद का मकसद है दर पर्दा इसलाम का विस्तार, (पहले था अरब को मज़बूत करना और अरबियों खास कर कुरैश की आर्थिक मदद ) इसके केंद्र को मज़बूत करना, इसके मानने वालों को जेहालत के अँधेरे में रखना. अब ऐसा नज़रिया रखने वाली इतनी बड़ी आबादी इस्लामी असर में रह कर हमारे साथ साथ रहती है तो यह एक चिंता का विषय ज़रूर है.<br />क़ुरआन एक खतरनाक अंध विश्वास है तो इस पर अंकुश लगे, इस बात से विरोधी तालियाँ न बजाएँ, इस पर अंकुश लगाने से पहले उनको अपने गरेबान में मुँह डाल कर झाँकना पड़ेगा। भारत में बहु संख्यक को पहले समझदार होना पड़ेगा. भारत के अल्प संख्यक को अगर अंध विश्ववास की पुडिया पिला रहा है तो भारत के बहु संख्यक को हिंदुत्व महा अंध विश्वास की गोली खिला रहा. दोनों एक दुसरे के पूरक और सहायक हैं. धार्मिक और मज़हबी अंध विश्वास ही हमारे देश का दुरभाग्य है.</span></div><span style="font-size:130%;color:#990000;"><div align="right"><br /></span><span style="color:#660000;"><strong><span style="font-size:180%;"><em>'मोमिन'</em><br /></div></span></strong></span>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-36504516824060972922009-04-27T20:21:00.000-07:002009-04-27T20:40:42.061-07:00क़ुरआनी हक़ीक़त<div align="center"><span style="color:#660000;"><strong><span style="font-size:180%;">अलबेदार </span></strong></span></div><div align="left"><br />बदरियाँ -(६)</div><div align="justify"><br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">दुन्या के तमाम मुसलमानों के साथ बड़ा अलमिया(विडंबना) ये है कि उन का धार्मिक ग्रन्थ यानी कुरआन, उनकी अपनी भाषा में नहीं है, सिवाए अरब के जो हमेशा से कुरआन का आर्थिक लाभ भर ले रहे हैं. बाकी गैर अरब इसलामी दुन्या इस स्वयम सज्जित ग्रन्थ को सर पे उठाए हुए महत्त्व पूर्ण किए हुए है. उपमहाद्वीप का एक मुस्लिम वर्ग तो उन अरबों को इस्लामी दृष्टि कोण से मुसलमान ही नहीं मानता, उन्हें वहाबी कहता है. मुस्लमान विद्यार्थियों को अरबी के नाम पर मदरसों में कुरआन पढाया जाता है, जो की कुरआन के पढने तक महदूद रहता है, न तो विद्यार्थी इसकी भाषा को समझ सकता है, न लिख सकता है और न ही बोल सकता है. आश्चर्य जनक है कि लाखों इसके कंठस्त हफिज़े कुरआन हर रोज़ कुरआन को दोहराते हैं और इस में इन की उम्रें बीत जाती हैं मगर वह नहीं जानते कि वह रोज़ कुरआन में क्या पढ़ते हैं? वोह ये तो जानते हैं कि ये अल्लाह का कलाम है यानी ईश वाणी है मगर ये नहीं जानते कि अल्लाह रोज़ उन से क्या कहता है? वह केवल इतना जानते हैं कि कुरआन ईश वाणी है और इस के पाठ करने में पुन्य है. अल्लाह ने क्या कहा, ये इसका चतुर गुरु जाने. कुरआन मुकम्मल निजाम हयात (जीवन विधान) है, मुल्ला के मुँह से सुनी ये बात आम मुस्लमान के मुँह पर रखी रहती है. मैं ने कईयों को दावत दी कि कभी कुरआन ला कर मुझे भी दिखलाएं कि कहाँ छिपी हुई हैं निज़ाम हयात? तो वोह बगलें झाँकने लगे, कई दोस्त कुरआन लेके बैठे भी मगर क्या खाक पाते कुरआन में कुछ ऐसा है ही नहीं. अल्लाह की बातें तो इन्हें समझ में न आईं मगर तर्जुमान की पच्चर से कसी गई चूलें इन्हें मना लेतीं अन चाही बातों के लिए. चूँ कि कुरआन को लोग सर्वांग आस्था बन कर पढ़ते है और इस पर ज़बान खोलने का साहस नहीं करते, वजेह ये कि दोज़ख की धमकी साथ साथ चलती रहती है और मानने वालों को जन्नत की लालच भी, तो कौन रिज्क ले. सच पूछिए तो क़ुरआन को किसी सिंफे सुखन (विधा) का नाम दिया ही नहीं जा सकता. ये एक फूहड़ तुकांत वाली शायरी है. कलाम में रवानी (प्रवाह)और फ़साहत (सुभाष्यता) लाने के लिए अर्थ का अनर्थ हो गया है. बातें आधी अधूरी रह गई हैं जो कि पढने वालों को बुरी तरह खटकती हैं और जिसे अनुवादक और ब्याख्या कार अपनी बैसाखी लगाए रहते हैं. कहीं कहीं क़ुरआन कि बातें ऐसी लगती हैं जैसे बातें सिर्फ बात करने के लिए की जा रही हो, जैसे कि किसी पागल कि बड. मुझे यकीन है कोई भी औसत दर्जे का ज़ेहन रखने वाला एक मुसलमान क़ुरआन का बुनयादी अनुवाद पढे तो ख़त्म होने से पहले ही बेज़ारी का शिकार हो जाएगा. कहा जाता है क़ुरआन अल्लाह का कलाम है यानी अल्लाह के मुँह से निकली हुई बात मगर क़ुरआन में अल्लाह कभी अपने मुँह से बोलता है तो कभी मुहम्मद उसके मुँह से बोलने लगते हैं और कभी एक अदना सा बन्दा बन कर अल्लाह खुद अल्लाह के आगे गिडगिडाने लगता है. कलाम के ये तीन अंदाज़ काफ़ी हैं कि क़ुरआन किसी आसमानी ताक़त का कलाम नहीं है. आलिमान क़ुरआन बतलाते हैं कि यह अल्लाह का अंदाजे बयान है जो कि उनकी बे शर्मी ही कही जा सकती है. इनकी बात मान लेना आज समाजी मजबूरी नहीं रह गई. बल्कि समाज के तईं ये गैर ज़िम्मेदाराना बात है.<br />"ला इलाहा इल्लिल्लाह मुहम्मदुर रसूल लिल्लाह" अर्थात "अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और मोहम्मद उसके दूत हैं।"किसी गैर मुस्लिम को इसलाम कुबूल करने के लिए नहा धो कर प्रस्तुत कलिमा पढ़ लेना ही काफी होता है। इसके अंतर गत एक जन साधारण को इसलाम का गुलाम बना लिया जाता है. इस के तहेत नव मुस्लिम को मुल्ला की हर सही और गलत बात मानने के बाध्य हो जाना पड़ता है जिस को मुहम्मद ने क़ुरआन में अल्लाह के मुँह से कहा है. उस अल्लाह का अस्तित्व तो कहीं है ही नहीं जिस की कल्पना मुहम्मद ने की है. दर असल परदे के पीछे मुहम्मद खुद वह अल्लाह हैं जिसको कि उन्हों ने बन्दों के लिए गढा है. किताब के ख़त्म होते होते यह बात खुद बखुद करी (पाठक) के समझ में आ जाएगी. मुहम्मद का अल्लाह जो कि मुसलमानों के सिवा बाकी सारी कौमों के लिए आग की भट्टियाँ दहकता है, ठीक ऐसा ही अल्लाह यहूदियों का इलोही (जहूवा) भी है बल्कि इस भी सख्त. मुहम्मद ने यहूदियों के नबी मूसा का पूरा पूरा अनुसरण किया है. मूसा ज़ालिम तरीन रहनुमा था. मुहम्मद और मूसा में अंतर सिर्फ इतना है कि मूसा मुहम्मद की तरह निरक्षर नहीं था, तौरेत का ज़्यादा हिस्सा की रची हुई है जिस में एक सलीका है। क़ुरआन में बे सिर पैर की बकवास है, इसी लिए इसकी तिलावत (पाठ) करना अव्वालियत में क़रार दे दिया गया है, अवाम को समझना है तो किसी मौलाना के माध्यम से ही समझे. जो की पक्के चाल बाज़ होते हैं. </span></div><div align="right"> <span style="font-size:180%;color:#660000;">मोमिन</span></div>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-78927848028830680112009-04-26T20:04:00.000-07:002009-04-26T20:33:19.584-07:00एक ही हालबेदारियां -(५)<br /><br /><div align="center"><span style="font-size:180%;color:#660000;">अलबेदार</span> </div><br /><div align="center"></div><br /><div align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">हम बहैसियत मुसलमान इस वक्त अपने विरोधियों के निशाने पर हैं, ख्वाह वह भू भाग का कोई भी टुकडा क्यों न हो, मुस्लिम शाशन में हो, या गैर मुस्लिम प्रभुत्व में हो, छोटा सा गाँव हो, कस्बा हो, छोटा या बड़ा शहर हो, हर जगह मुसलमान अपने आप को असुरक्षित मानता है, खास कर वह मुसलमान जो वक्त के अनुसार बेहतर और जागरुक समाजी ज़िन्दगी जीने का हौसला रखता है. उस के लिए दूर दूर तक आंतरिक और वाह्य दोनों तौर पर रोड़े बिखरे हुए हैं. वाह्य रूप में देखें तो दुन्या इन मुसलमानों के लिए कोई नर्म गोशा इस लिए नहीं रखती कि इन का अतीत उनके प्रति इन्तेहाई दागदार है, और आंतरिक सूरते हाल ऐसी है कि ख़ुद इनका ही समाजी वातावरण इन्हें सदियों पीछे ले जाना चाहता है. हर संवेदन शील मुसलमान अपने ऊपर मंडराते खतरे को अच्छी तरह महसूस कर रहा है. वह अपने अन्दर छिपी हुई इस की वज़ह को भी अच्छी तरह जानता बूझता है. बहुत से सवाल वह ख़ुद से करता है, अपने को लाजवाब पाता है. ख़ुद से नज़र नहीं मिला पाता, जब कि वह जानता है हल उसके सामने अपनी उंगली थमाने को तय्यार खड़ा है क्यूंकि उसके समाज के बंधन उसके पैर में बेडियाँ डाले हुए हैं. वह शुतुर मुर्ग कि तरह सर छिपाने के हल को क्यूं अपनाए हूए है? वह अपनी अस्तित्व को किस के हवाले किए हुए है? इसी कशमकश में वह ख़त्म हो जाता है, और अपनी नस्लों को खौफनाक भविष्य में ढकेल जाता है.<br />हमें चाहिए हम आँखें खोलें, सच्चाइयों का सामना करते हुए उनको तस्लीम कर लें। याद रखें सच्चाई को तस्लीम करना ही सब से बड़ी अन्दर की बहादुरी है. दीन के नाम पर रूढियों(क़दामातों) पर डटे रहना जहालत है. कल की अलौकिक (माफौकुल-फितरत) बातें और मिथ्य (दरोग बाफियाँ) आज के साइंस्तिफिक हल २+२=४ कि तरह सच नहीं हैं. आधुनिक और जदीद तरीन सत्य और सदाक़तें अपने साथ नई मूल्य लाई हैं. इन में शहादतें और पाकीज़गी है. वह अतीत के मुजरिमों का बदला इनकी नस्लों से नहीं लेतें. वह क़ुरआनी आयातों की तरह काफिर की औरतों और बच्चो को "मिन जुमला काफिर" करार नहीं गरदान्तीं (गिनते). वह तो काफिर और मोमिन का अंतर भी नहीं करतीं. इन में प्रति-शोध ( इन्तेक़ाम) का कोई खुदाई हुक्म भी नहीं है, न इन का कोई मुन्तक़िम(बदला लेने वाला) खुदा है. हमें इन जदीद सदाकतों और पवित्र मूल्यों को तस्लीम कर लेने की ज़रूरत है. हमें तौबा इन के एहसासात (अनुभूतियों)के सामने आकर करना चाहिए और हम तौबा जाने कहाँ कहाँ वहमों और गुमानों के सामने करते फिर रहे हैं, यह नई सदाकतें, यह पाक क़द्रें किसी पैगम्बर की ईजाद नहीं, किसी समूह की नहीं, किसी कबीले की नहीं, किसी भू-भाग की नहीं, हजारों सालों से इंसानियत के पौदों के फूल की खुशबू से यह वजूद में आई है. बिना किसी शंका, या शको शुबहा इन को "हर्फे-आखीर" और "आखिरी निज़ाम" कहा जा सकता है. ये रोज़ बरोज़ और ख़ुद बखुद सजती और संवारती चली जाएंगी. इन का कोई अल्लाह नहीं होगा, कोई पैगम्बर नहीं होगा, कोई जिब्रील नहीं होगा, न कोई शैतान ये मज़हबे-इंसानियत दुन्या का आखरी मज़हब होगा, आखरी निजाम होगा. अगर सब से पहले मुसलमान इसे कुबूल करें तो इन के लिए सब से बेहतर रास्ता होगा. आज दो राहे पर खड़ी क़ौम के लिए सही हल. दुन्या की कौमों में सफ़े-अव्वल में आने का एक सुनहरा मौक़ा और short cut रास्ता. इसके बाद बाकी भारत मानवता के अनुसरण में होगा.</span><span style="font-size:130%;color:#990000;"><br /></div><div align="right"><br /></span><span style="font-size:180%;color:#660000;">'मोमिन'</span><br /></div>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-13224355620845905502009-04-25T20:32:00.000-07:002009-04-25T20:44:32.110-07:00दोबारा निवेदन है - - -<p>बेदारियाँ -( १) </p><p align="center"><span style="color:#660000;"><span style="font-size:180%;">शुरू करता हूँ बइस्म् ए सिद्क़ और ईमान के साथ- - -</span></span></p><span style="color:#660000;"><span style="font-size:180%;"><p align="justify"><br /></span></span><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;">मुसलामानों! जागो तुम आज कुछ ज़्यादह ही अपने दुश्मनों से घिरे हुए हो, वैसे तुम तो हमेशा से ही खतरों से घिरे रहते हो। जब तुम पर कोई खतरा लाहक़ होता है तो उल्टे तुम्हारे मज़हबी रहनुमा तुमको ही दोष देते हैं कि तुम दीन से हटते जा रहे हो और तुम को तुम्हारा माज़ी याद दिलाते हैं जब तुम हुक्मरान हुवा करते थे. हालाँकि तुम मुस्लिम अवाम हमेशा दीन दार रहे हो और आज सब से बेहतर मुस्लमान हो. फिर भी वह तुम को पहला हल बतलाते है कि नहा धो कर सब से पहले तुम तौबा करके नए सिरे से फिर से मुस्लमान बन जाओ और हो जाओ पंज वक्ता नमाजों के पाबन्द, उनका कहना मानो। दर अस्ल यही मुसलमानों के साथ कौमी हादसा है. मुस्लमान बेदार होने की दर पे होता है कि ये दीनदार उसे नींद की गोलियां एक बार फिर से देकर सुला देते हैं. क़ौम को सही मानों में बेदार होना है, इस के लिए क़ौम को बहुत बडी जेसारत करनी होगी. इसलाम को नए सिरे से समझना होगा, कुरआन की गहराइयों में जाना होगा जहाँ खौफ नाक नफ़ी के पहलू पोशीदा हैं, जिसे हर आलिम जनता है, नहीं जानती तो मुस्लिम अवाम। जिसे हर हिदू विद्वान् (अमानवीय मूल्यों का कपटी ज्ञान धारक) जनता है मगर चाहता है कि मुसलमान इस अंध विश्वास और आपसी कलह में हमेशा मुब्तिला रहे ताकि ये "पिछड़ा वर्ग विशेष" कहलाए. ओलिमा अगर क़ुरआनी हकीक़त मुसलमानों पर ज़ाहिर कर दें तो वोह गोया खुद कशी कर लें. "अलबेदार" ने बीडा उठाया है कि ईमानदारी के साथ मुसलमानों को जगाएगा और थोडी सी तब्दीली की राय देगा कि तुम " मुस्लिम से मोमिन हो जाओ" इसलाम को तस्लीम किया है जिसके पाबन्द हो. इस पाबन्दी को ख़त्म करदो और ईमान को कुबूल कर लो जो कि इन्सान का अस्ल और इन्सान का दीन है, जैसे धर्म कांटे का असली और फितरी दीन है उसकी सही तौल, फूल का असली और फितरी दीन है महक, और इन्सान का असली और फितरी दीन है इंसानियत। बस ये ज़रा सी तब्दीली धीरे से दिल की गहराई में जाकर तस्लीम कर लो फिर देखो कि तुम क्या से किया हो गए. तुम्हें अपनी तहज़ीब ओ तमद्दुन, अपना कल्चर अपनी ज़बान, अपना लिबास, अपना रख रखाव और तौर तरीका कुछ भी नहीं बदलना है, बदलना है तो सिर्फ सोच और वह भी बहुत शिद्दत के साथ कि बड़े ही नाज़ुक दौर से मुस्लमान कही जाने वाली क़ौम तबाही के दहाने पर है. अपने बच्चों को जदीद तालीम दो, दीनी तालीम और तरबीयत से दूर रक्खें. मौलानाओं, आलिमों, मोलवियों के साए से बचाएँ, क्यूंकि</span></span> <span style="font-size:130%;color:#990000;">यही हमेशा से मुसलमानों के पस्मान्दगी के बाईस रहे है।</span></p><p align="right"><span style="font-size:180%;color:#660000;">'मोमिन'</span></p>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-37868830370443067362009-04-23T20:08:00.000-07:002009-04-23T20:28:09.736-07:00अलबेदारअलबेदार -(३)<br /><div align="center"><span style="color:#660000;"><span style="font-size:180%;">आगाही </span></span></div><div align="justify"><span class=""><span style="font-size:130%;color:#990000;">मुसलमानों! जागो,<br />क्या तुम को मालूम है कि तुम पामाल हो रहे हो ?<br />कभी सोचा है कि इसकी वजह क्या हो सकती है ?<br />इस की वजह है तुम्हें घुट्टी मे पिलाया गया दीन ए इसलाम और तुम्हारे वजूद पर छाए हुए यह शैतानी आलिमाने दीने ए इसलाम. क़ुरआन तुम्हारा पैदाइशी दुश्मन है जिस को यह आलिमाने दीन तुम्हें उल्टा समझाते हैं, जो कहता है "अल्लाह की राह में क़त्ताल करो." दुन्या के लिए यह इसका बद तरीन पैगाम है, इसके रद्दे अमल में सारी मुहज्ज़ब दुन्या मिल के तुमको क़त्ल करके ज़मीन को पाक कर देगी. अभी वक़्त है तर्क ए इसलाम करके ईमान के दामन को थाम लो, मुस्लिम से मोमिन बन जाओ, बहुत आसान है ये काम, बस तुम्हारे पक्के इरादे की ज़रुरत है. मोमिन पैदा हो चुका है, वह तुम्हारी रहनुमाई करता है. वह पयंबरी का दावा करता है न रहबरी का, वोह तो तुम में से ही एक अदना सा जगा हुवा इन्सान है जो भोले भाले मुसलमानों को जगाना चाहता है कि तुम लोग अपने बद तरीन दुश्मन, अपने बहरूपिए ओलिमा के चंगुल में फंसे हुए हो, आज ही नहीं, सदियों से . क़ुरआन में कुछ भी नहीं है, कुरआन आलम इंसानियत पर एक गाली है, इसे अपनी आँखों से देखो, अपनी समझ से समझो, शर्म से सर झुक जाएगा. इस्लामी आलिम सब कुछ तुम को उल्टा बतलाते हैं."हर्फे ग़लत" को पढो पहली किताब है जो कुरआन का ठीक ठीक तर्जुमानी करती है, कोई मुल्ला लाहौल पढने के सिवा इसके किसी बात का फितरी जवाब नहीं दे सकता. मुस्लिम से बा ज़मीर और ईमान दार मोमिन बनो.</span> </span></div><div align="right"></div>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-27409404621481024062009-04-23T10:09:00.001-07:002009-04-24T22:25:01.753-07:00अलबेदारबेदारियां -(४)<br /><div align="center"><br /><span style="font-size:180%;color:#660000;">मुसलमानों को अँधेरे में रखने वाले ओलिमा, वक्त आ गया है कि अब जवाब दें- - -</span></div><div align="center"><span style="font-size:180%;color:#660000;"></span> </div><div align="justify"><span style="font-size:130%;color:#990000;">कि लाखों, करोरों, अरबों बल्कि उस से भी कहीं ज़्यादः बरसों से इस कायनात को चलाने वाला अल्लाह क्या चौदह सौ साल पहले सिर्फ तेईस साल चार महीने (मोहम्मद का पैगम्बरी अय्याम) के लिए अरबी जुबान में बोला था? वह भी सीधे नहीं, किसी फ़रिश्ते जिब्रील के ज़रीआ, वह भी बाआवाज़ बुलंद नहीं काना-फूसी से? अवाम कहते रहे कि जिब्रील आते हैं तो सब को दिखाई क्यूँ नहीं पड़ते? जो कि उनका सही मुतालबा था और मोहम्मद बहाने बनाते रहे। क्या उसके बाद अल्लाह को साँप सूँघ गया कि ख़ुद साख्ता रसूल की मौत के बाद उसकी बोलती बंद हो गई और जिब्रील अलैहिस्सलाम रेहलत फरमा गए? किर्द गार ए रोज़गार के काम तो सारे के सारे बदस्तूर चल रहे हैं, मगर झूठे क़ुरआनी अल्लाह और उसके ख़ुद साख्ता रसूल के फरेब में आ जाने वाले मुसलमानों के काम चौदह सौ सालों से रुके हुए हैं, मुस्लमान वहीँ है जहाँ सदियों पहले था, उसके हम रकाब यहूदी, ईसाई और दीगर कौमें आज हम मुसलमानों को सदियों पीछे माज़ी की तारीकियों में छोड़ कर रौशन दुन्या में बढ़ गए हैं. हम मोहम्मद की गढ़ी हुई जन्नत के फरेब में ही नमाज़ों के लिए वज़ू, रुकू और सजदे में मुब्तिला है. मुहम्मदी अल्लाह उन के बाद क्यूँ उम्मत से कलाम नहीं कर रहा है? जो कलाम उसके नाम से किए गए है, उन में कितना दम है? ये सवाल तो आगे आएगा जिसका फितरी जवाब इन बदमआश आलिमो को देना होगा....<br />क़ुरआन का पोस्ट मार्टम खुली आँख से देखें "हर्फ़ ए ग़लत" का सिलसिला जारी होने वाला है. अपने अन्दर तब्दीली लाएँ , मुस्लिम से मोमिन हो जाएँ और ईमान की बात करें. आप अगर ज़मीर रखते हैं तो सदाक़त को ज़रूर समझेंगे और अगर इसलाम की कूढ़ मग्ज़ी ही ज़ेह्न में समाई हुई है तो जाने दीजिए अपनी नस्लों को तालिबानी जहन्नम में।</span></div><div align="right"><br />'<span style="font-size:180%;color:#660000;">मोमिन'</span></div>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-72250978370933623102009-04-22T21:12:00.000-07:002009-04-22T21:24:52.454-07:00बेदारियाँ -(२)<br /><div align="center"><br /><span style="font-size:180%;color:#660000;">मुस्लिम नहीं 'मोमिन'</span></div><div align="justify"><br /><span style="font-size:130%;color:#990000;">मुसलमानों! बहुत से मोमिन इस्लामी दुन्या में पैदा हो चुके हैं, जो तुम को नजात दिलाना चाहते हैं इसलाम की खुद से तस्लीम शुदा जेहनी गुलामी से और दावत देते हैं ईमान ए अस्ल की जिसका कोई अल्लाह नहीं, कई रसूल नहीं, कोई दोज़ख नहीं कोई फरेबी जन्नत भी नहीं। ज़िंदगी जो कुछ है इसी दुन्या तक है, इसी धरती तक है। तुम्हारा अगला जनम भी कोई नहीं है और न क़यामत कोई कि दोबारा जिंदा किए जाओगे, तुम्हारा अगला जन्म अगर कुछ है तो नसले इंसानी है, जैसे हर मखलूक और हर शै की होती है. इसके लिए कुछ करते रहो तो यही कारे खैर है. इस धरती को सजाना संवारना ही अपनी इबादत समझो, अगर इबादत का शौक़ रखते हो. सदाक़त को जीना बड़ी मुश्किल इबादत है, वोह करो, जितना हो सके तुम सदाक़त को जियो, इस से बड़ा तप कोई नहीं है, इस तपस्या को कर के आजमाओ. पूजा पाठ, नमाज़ रोजा, तो तप की अवमानना, एवं अपमान ही नहीं इबादत की परछाईं हैं, इसका का मज़ाक हैं. मुस्लिम से मोमिन हो जाओ, इसलाम से ईमान पर आओ. बहुत आसान है और बहुत कठिन भी मगर इंसानियत का तकाज़ा यही कह रहा है कि हमको मोमिन बनना चाहिए. बाकी लोग तुम्हारी पैरवी में तुम्हारे पीछे भागे हुए आएँगे. ध्यान रहे ईमान दार बनना है, नाम दार नहीं, माल दार नहीं, शोहरत दार नहीं, सिर्फ़ ईमानदार. इन ईमान फरोश मुसलमान ओलिमा से बे खौफ़. इन की तहरीक गुलामी ए इस्लाम के खिलाफ मोमिन बन जाओ. तुम्हारा मिशन होगा गैरत मंद कौमे मोमिन जो इस के सिवा कुछ नहीं जानते कि इंसान फिर्फ़ इन्सान है और इंसानियत उसका मज़हब है, आज इसलाम उस पर थोपा हुवा एक जुर्म है। जिस मुल्क में रहते हो, वहां का कानून और उसका आईन तुम्हारी वफ़ा दारी है और उसे वक़्तन फ़्वक़्तन बदलते रहना तुम्हारा हक है.</span></div><span style="font-size:130%;color:#990000;"><div align="right"><br /></span><span style="font-size:180%;color:#660000;">'मोमिन' </span></div>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-255827798280935011.post-6950384195254563742009-04-21T20:17:00.000-07:002009-04-21T20:48:38.708-07:00अलबेदार<span class=""></span><br />बेदारियाँ -१ (२२-४-२००९)<br /><div align="center"><span style="color:#660000;"><span style="font-size:180%;">शुरू करता हूँ बइस्म् ए सिद्क़ और ईमान के साथ- - -</span></span></div><span style="color:#660000;"><span style="font-size:180%;"><div align="justify"><br /></span></span><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;">मुसलामानों! जागो तुम आज कुछ ज़्यादह ही अपने दुश्मनों से घिरे हुए हो, वैसे तुम तो हमेशा से ही खतरों से घिरे रहते हो। जब तुम पर कोई खतरा लाहक़ होता है तो उल्टे तुम्हारे मज़हबी रहनुमा तुमको ही दोष देते हैं कि तुम दीन से हटते जा रहे हो और तुम को तुम्हारा माज़ी याद दिलाते हैं जब तुम हुक्मरान हुवा करते थे. हालाँकि तुम मुस्लिम अवाम हमेशा दीन दार रहे हो और आज सब से बेहतर मुस्लमान हो. फिर भी वह तुम को पहला हल बतलाते है कि नहा धो कर सब से पहले तुम तौबा करके नए सिरे से फिर से मुस्लमान बन जाओ और हो जाओ पंज वक्ता नमाजों के पाबन्द, उनका कहना मानो। दर अस्ल यही मुसलमानों के साथ कौमी हादसा है. मुस्लमान बेदार होने की दर पे होता है कि ये दीनदार उसे नींद की गोलियां एक बार फिर से देकर सुला देते हैं. क़ौम को सही मानों में बेदार होना है, इस के लिए क़ौम को बहुत बडी जेसारत करनी होगी. इसलाम को नए सिरे से समझना होगा, कुरआन की गहराइयों में जाना होगा जहाँ खौफ नाक नफ़ी के पहलू पोशीदा हैं, जिसे हर आलिम जनता है, नहीं जानती तो मुस्लिम अवाम। जिसे हर हिदू विद्वान् (अमानवीय मूल्यों का कपटी ज्ञान धारक) जनता है मगर चाहता है कि मुसलमान इस अंध विश्वास और आपसी कलह में हमेशा मुब्तिला रहे ताकि ये "पिछड़ा वर्ग विशेष" कहलाए. ओलिमा अगर क़ुरआनी हकीक़त मुसलमानों पर ज़ाहिर कर दें तो वोह गोया खुद कशी कर लें. "अलबेदार" ने बीडा उठाया है कि ईमानदारी के साथ मुसलमानों को जगाएगा और थोडी सी तब्दीली की राय देगा कि तुम " मुस्लिम से मोमिन हो जाओ" इसलाम को तस्लीम किया है जिसके पाबन्द हो. इस पाबन्दी को ख़त्म करदो और ईमान को कुबूल कर लो जो कि इन्सान का अस्ल और इन्सान का दीन है, जैसे धर्म कांटे का असली और फितरी दीन है उसकी सही तौल, फूल का असली और फितरी दीन है महक, और इन्सान का असली और फितरी दीन है इंसानियत। बस ये ज़रा सी तब्दीली धीरे से दिल की गहराई में जाकर तस्लीम कर लो फिर देखो कि तुम क्या से किया हो गए. तुम्हें अपनी तहज़ीब ओ तमद्दुन, अपना कल्चर अपनी ज़बान, अपना लिबास, अपना रख रखाव और तौर तरीका कुछ भी नहीं बदलना है, बदलना है तो सिर्फ सोच और वह भी बहुत शिद्दत के साथ कि बड़े ही नाज़ुक दौर से मुस्लमान कही जाने वाली क़ौम तबाही के दहाने पर है. अपने बच्चों को जदीद तालीम दो, दीनी तालीम और तरबीयत से दूर रक्खें. मौलानाओं, आलिमों, मोलवियों के साए से बचाएँ, क्यूंकि यही हमेशा से मुसलमानों के पस्मान्दगी के बाईस रहे है.</span></span></div><span style="color:#990000;"><span style="font-size:130%;"><div align="right"><br /></span><span style="font-size:180%;color:#660000;">'मोमिन'</span></span> </div>MOMINhttp://www.blogger.com/profile/03513474517268047629noreply@blogger.com1